पृष्ठ:पदुमावति.djvu/७२८

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पदुमावति । २५ । सूरी-खंड । [२८० - २८१ नक्षत्र प्रसिद्ध ज्योतिषशास्त्र में सत्ताइस हैं, पर यहाँ पर कवि ने नक्षत्र से सब ताराओं को लिया है। दानव और राक्षस में भेद है दूसौ लिये मनुस्मृति के १ अध्याय ३७ ३ श्लोक में लिखा है कि यक्षरक्षःपिशाचांश्च गन्धर्वाप्सरसोऽसुरान् । नागान् सर्पान सुपणींश्च पितॄणां च पृथग् गणन् ॥ २८० ॥ चउपाई। तउ महेस उठि कीन्ह बसौठौ। पहिलई कडुइ अंत हो मौठौ ॥ तूं गंधरब राजा जग पूजा। गुन चउदह सिख देव को दूजा ॥ हौरामनि जो तुम्हार परेवा । गा चितउर गढ कीन्हेसि सेवा ॥ तेहि बोलाइ पूछहु ओहि देख । अउ पूछह जोगिन्ह कर भेसू ॥ हमरे कहत रहइ नहिँ मानू । वह बोलइ सोई परवाँनू॥ जहाँ बारि तहँ आउ बरोका। करहु बिआह धरम बड तो का ॥ जो पहिले मन मान न काँधी। परखि रतन गाँठौ तब बाँधौ ॥ दोहा। रतन छपाए ना छपइ पारख हो सो परीख । घालि कसउटौ दौजिअइ कनक कचउरी भौख ॥ २८१॥ तउ - तदा = तर्हि । महेम = महेश = महादेव। उठि उत्थाय = उठ कर। कौन्ह अकृत = किया। बसौठी= विशिष्टत्व = दूतत्व = दूत का काम। पहिल+ = पहले = प्रथमे । कडु = कटु = कडुई। अंत = अन्य = आखिर । हो = भवति = होती है। मौठी = मिष्ट । दूँ = त्वम् = तैं । गधरब = गन्धर्व = गन्धर्व-सेन । जग = जगत् = संसार । पूजा पूज्य । गुन गुण । चउदह = चतुर्दश = चौदह । सिख - शिक्षा । देद = दद्यात् = देवे । को = कः = कौन । दूजा = द्वितीय = दूसरा। हीरामनि = हीरामणि शक । जो = जो = यः। तुम्हार = तुम्हारा = तव । परेवा = पारावत = पक्षी। गा= अगात् = गया । चितउर = चित्र-वर वा चित्र-पुर । गढ = गाढ = दुर्ग = किला । कीन्हेसि = अकृत =