पदुमावति । १ । असतुति खंड । [१६ - २० 1 11 हरा = हर गया = नष्ट हो गया। मुरसिद = गुरु । पौर = महानुभाव। नाउ = नाव । खेवक =खेने वाला। तिन के ( सैयद अशरफ के ) घर में, एक निर्मल रत्न, सुभाग्य से भरे, शेख हाजी हुए। तिन के (शेख हाजी के ) घर में , देव ने (ईश्वर ने ) (जगत् को) पन्थ देने के लिये दो प्रज्वलित दीपक बनाया, अर्थात् उत्पन्न किया ॥ एक का नाम शेख मुबारक, जिन को पूर्णिमा के चन्द्र के ऐसौ कला (शोभा ) थी। दूसरे शेख कमाल, जो जगत् में निर्मल थे, अर्थात् जिन में एक भी अवगुण नहीं था। दोनों ध्रुव के ऐसे अचल (स्थिर ) डोलते नहीं थे, अर्थात् चलायमान नहीं होते थे। मेरु जिस के ऊपर उत्तर ध्रुव, और खिखिंद, कुखण्ड, जिस के ऊपर दक्षिण ध्रुव हैं, तिन दोनों पहाडौँ के भी ऊपर हैं ॥ गोसाई (ईश्वर) ने ( दोनों को) रूप और ज्योति दिया, और तिन दोनों को जग का खंभा किया ॥ (ईश्वर ने) इन्ही दोनों खंभों से सब महौ (पृथ्वी) को रोक रक्खा, इन्हीं दोनों के भार लेने से सृष्टि स्थिर रही है। जो दर्शन करे और (दून के) पैर को छुए, उन का (जानो) पाप नष्ट हो गया, और काया ( शरीर) निर्मल हो गई ॥ मुहम्मद कवि कहते हैं, कि जिस के संग में (ऐसे) महानुभाव गुरु हाँ, (वह जहाँ हो) तहाँ-हौ निश्चिन्त पंथ है, अर्थात् उस की राह में किसी बात का डर नहीं। क्योंकि (रे मन) जिस को नाव और खेने-वाला है, सो (वह) शीघ्र तौर को पाता है, अर्थात् शीघ्र पार हो जाता है | यहाँ रे नौच-सम्बोधन है। और गुरु को खेवक और धर्म को नाव समझना चाहिए ॥ इस दोहे और इस के पिछले दोहे से स्पष्ट है, कि सैयद अशरफ मलिक मुहम्मद थे चउपाई। गुरु माहिदी खेवक मई सेवा। चलइ उताइल जेहि कर खेवा ॥ अगुआ भाउ सेख बुरहानू । पंथ लाइ जेहि दोन्ह गिबानू ॥ अलहदाद भल तेहि कर गुरू । दौन दुनो रोसन सुरुखुरू ॥ सइअद मुहमद के वेइ चेला। सिद्ध पुरुख संगम जेइ खेला ॥ दानिशाल गुरु पंथ लखाए । हजरत खाज खिजिर तेइ पाए॥ भए परसन ओहि हजरत खाजे। लेइ मेरए जहँ सइअद राजे ॥ ओहि सउँ मइँ पाई जब करनी। उघरी जीभ कथा कबि बरनी ॥ के मन्त्र-गुरु
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