१८-१६] सुधाकर-चन्द्रिका। २५ - . सैयद अशरफ प्यारे पौर (गुरु) थे, तिन्हौं ने मुझ को उज्वल पन्थ दिया, अर्थात् ईश्वर की सच्ची राह में प्रवृत्त किया ॥ (मेरे) हृदय में (ईश्वर के) प्रेम का दीया बार दिया, ( जिस से) ज्योति उठी और हृदय निर्मल हो गया ॥ जो मार्ग असूझ और अंधेरा था, वह उज्ज्वल हो गया, (मैं ) सब कुछ जान गया और समझ गया ॥ (उन्हाँ ने) मेरे पाप को खारे समुद्र में डाल दिया, और (मुझे) चेला कर के अर्थात् शिष्य बना कर धर्म-रूपी नाव पर ले लिया, अर्थात् चढा लिया ॥ उन्हों ने मेरे (नाव को) कडी को मजबूत कर के पकडा, (जिस कारण ) मैं तौर (तट ) को पाया जहाँ कि घाट था ॥ जिस को ऐसा कर्ण-धार हो, तो वह कर्ण-धार तिस को पकड कर, ले कर पार लगा देता है । वह हाथ पकडने-वाले और गाढे के ( संकट समय के ) साथी हैं । और जहाँ अथाह है तहाँ हाथ देते हैं, अर्थात् डूबती समय अपने हाथ को फैला देते हैं, जिस के आधार से डूबने-वाला बच जाता है । उन को पदवी जहांगौर और जाति चिस्ती है। वे ऐसे निष्कलङ्क हैं, जैसा कि चन्द्र (दुइज का)। वे जगत् के खामौ हैं मैं उन के घर का विना रुपये पैसे का टहलुआ हूँ॥ १८॥ चउपाई। तेहि घर रतन एक निरमरा। हाजी सेख सुभागइ भरा ॥ तेहि घर दुइ दीपक उँजिबारे। पंथ देइ कह दई सँवारे ॥ सेख मुबारक पूनिउँ करा । सेख कमाल जगत निरमरा ॥ दुअउ अचल धुब डोलहिं नाहौँ। मेरु खिखिंद तिन्हहु उपराहौँ ॥ दौन्रु रूप अउ जोति गोसाई। कौन्ह खंभ दुहुँ जग कइ ताई दुहूँ खंभ टेकौ सब महौ । दुहुँ के भार सिसिटि थिर रही ॥ जो दरसइ अउ परसइ पाया । पाप हरा निरमर भइ काया ॥ - = दोहा। मुहमद तहाँ निचिंत पँथ जेहि सँग मुरसिद पौर । जेहि रे नाउ अउ खेवक बेगि पाउ से तौर ॥ १८ ॥ सुभाग = सुभाग्य । ध्रुब = ध्रुव-तारा । ताई = तिन्हें। थिर = स्थिर । पाया = पैर ।
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