३४ पदुमावति । १ । असतुति-खंड । [२३ । . कूँजी बना कर उस पूँजी को ( मैं ने ) खोला । यहाँ पर कवि ने अपने हृदय को भण्डारा, उस में जो अनेक पद पदार्थ भरे हैं, उसे नग ( रत्न ) जो कि आगे की चौपाई से स्पष्ट है, तालु को उस भण्डारे का ताला और उस ताले की कुञ्जी ( चाभी ) जीभ को बनाया है। दूस प्रकार से यहाँ रूपकालङ्कार है। अनेक जो बोलो बोला (कहा) है, वेई रत्न-रूपी पदार्थ हैं । वे बोलियाँ कैसी हैं ? कि प्रेम-रूपी जो सुरस (सुस्वादु रस) मधु (शहद् ) उस से भरौ है, दसौ लिये अमूल्य हैं॥ प्रेम में ऐसी क्या बात है, जो कि अमूल्य है ? ऐसौ कदाचित् शङ्का हो, तो के लिये आगे प्रेम का माहात्म्य कहते हैं। जिस को विरह के बोलौ का, अर्थात् प्रेम का, घाव लग गया, तिस को कहाँ भूख, कहाँ नौंद, और कहाँ छाया (विश्राम ) है । वह पुरुष अपने भेस (वेष) को फेर लेता है, अर्थात् अपने स्वरूप को छिपा लेता है, और तपखौ (= तपा) हो कर रहता है। (उस को ) ऐसी दशा हो जाती है, जैसे धूर से लपेटा माणिक्य छिपा हो ॥ यहाँ कवि का यह अभिप्राय है, कि जो प्राणी प्रेम-मय हो गया, वह माणिक्य रत्न के ऐसा है। वह रत्न न खो जाय, इस लिये वह संसार से विरक्त हो, वेष बदल कर, तपस्वी बन कर रहता है। मुहम्मद कवि कहते हैं, कि जो प्रेम की कया (काय = शरीर) है, तिस में न रक्त है, न माँस है, अर्थात् अस्थि-मात्र है, क्योंकि ऊपर लिख पाये है, कि प्रेमी को न भूख, न नौद, न विश्राम, कुछ भी नहीं होता। दूसौ लिये शरीर का रक्त माँस गल जाता है। केवल अस्थि रह जाती है। इसी लिये जिस ने उस प्रेमी का मुख देखा, तिस ने हम दिया। हँसने का तात्पर्य यह, कि लोगों ने उस को बौरहा समझ लिया है। (उन के हास्य को) सुन कर, तिस प्रेमी को श्राँस (अश्रु) आ जाती है, अर्थात् उस प्रेमी को दृष्टि तो सर्वदा उस प्रेम-ही की अोर है ; केवल कान से उन लोगों का सहास्य वचन को सुन कर, वह रोने लगता है, कि हाय जगदिचित्र है, जिस में प्रेम नहीं वह भी कोई पुरुष है। मो उलटे ये बौरहे मुझौ को बौरहा समझ हँसते हैं । यहाँ प्रेम से ईश्वर के चरण में अनुराग होना है। अथवा तिस प्रेमी का वृत्तान्त सुन कर, कि यह ईश्वर-चरणानुरागी पुरुष है, पीछे से उस हँसने-वालों को ग्लानि से अश्रु आ जाती है, कि हाय हाय विना समझे मैं ने हमा, अर्थात् हँस कर अपने शरीर को कलुषित किया ॥२३॥
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