२३] सुधाकर-चन्द्रिका। ३३ सजा॥ चउपाई। जास नगर धरम-असथानू । तहाँ आइ कबि कौन्ह बखान॥ कइ बिनती पँडितन्ह सउँ भजा। टूट सँवारहु मेरवहु हउँ सब कबितन्ह कर पछ-लगा। किछु कहि चला तबल देइ डगा ॥ हिअ भंडार नग अहइ जो पूँजौ। खोली जीभ तारु कइ कूँजी ॥ रतन पदारथ बोलो बोला । सुरस पेम मधु भरौ अमोला ॥ जेहि कइ बोलि बिरह कइ घाया। कह तेहि भूख नौद कहँ छाया ॥ फेरइ भेस रहइ भा तपा । धूरि लपेटा मानिक छपा॥ दोहा। - मुहमद कया जो पेम कइ ना तेहि रकत न माँसु । जेइ मुख देखा तेइ हँसा सुनि तेहि आउ आँसु ॥ २३ ॥ असथान = स्थान। भजा = सेवा किया । टूट = टूटा हुआ= त्रुटि । मेरवहु = मिला- दूये। सजा =माज = शोभा-योग्य पद। कबितन्ह = कवित्त बनाने-वाले = कवि । पछ-लगा पौके लगने-वाला = पौछे चलने-वाला = अनुगामी। तबल = तबला = डुग्गौ। डगा= डागा = डुग्गी बजाने की लकडौ। पूँजौ = मूल-धन । तारु = ताल वा ताला। कूँजौ कुञ्जौ = चाभौ ॥ जायस नगर जो धर्म का स्थान है, तहाँ पर आ कर कवि ने (इस कथा का) बखान किया ॥ पण्डिताँ से विनती कर के (उन कौ) सेवा किया, (और कहा कि) टूटा अक्षर बनाइये, और दूस में साज (शोभा-योग्य पद) को मिलाइये ॥ मैं सब कवियाँ का अनुगामी हूँ, डुग्गी के ऊपर लकडो को दे कर, अर्थात् डुग्गी को बजा कर कुछ कह चला है, अर्थात् न मुझे अाग्रह और न पाण्डित्य का अभिमान है, इस लिये सब पण्डित और कवि लोगों को मैं अपनी कविता सुनाता हूँ, और वे लोग जहाँ अनुचित कहें उसे में सुधारने पर प्रवृत्त हूँ। यहाँ 'किछु कहि चलत बोल दे डगा' यह पाठ । यह पाठ उपलब्ध पुस्तकों में नहीं है, किन्तु मेरी कल्पना है तनिक पदाँ के हेर फेर से ऐसा हो सकता है। इस तब 'मैं बोल (वाक्य) रूपौ डग (पैर) दे कर कुछ कह चलता है, यह अर्थ है॥ हृदय-रूपी भण्डार में जो नग पूँजौ है, जीभ को तालु को अच्छा 5
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