पृष्ठ:पदुमावति.djvu/८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३८ पदुमावति । २ । सिंघलदीप-बरनन-खंड । [२५ . 11 वर्णन एक विशेष दर्पण के भाँति है, दूस लिये जो जिस रूप का है, सो तैमा-ही (उस दर्पण में ) देख पडता है ॥ विशेष दर्पण कहने का यह भाव है कि बहुत से ऐसे भी दर्पण होते हैं, जिन में छोटे बडे रूप देख पडते हैं। उन सबों का निराकरण करने के लिये विशेष पद दिया ॥ धन्य सो (वह) दीप है जहाँ नारी (स्त्री-लोग) दीपक हैं, अर्थात् दीप के शिखा मी उज्वल हैं, और जहाँ पर देव (ईश्वर) ने उस पद्मिनी का अवतार दिया ॥ सब लोग मात दीप का वर्णन करते हैं, (परन्तु) उस द्वीप के समता योग्य एक भी दौप नहीं है ॥ दिया-दीप अर्थात् सुन्दरौ युवती का नेत्र, तैसा उज्ज्वल नहीं है। सरन-दीप (श्रवण-दीप), अर्थात् सुन्दरी का कर्ण, उस (सिंघल-दीप) के तुल्य होने को समर्थ नहीं है ॥ जम्बू-दीप, अर्थात् सुन्दरौ के केश पाश, को भी कहता है, कि तैसा (सिंघल-दीप सा सुन्दर) नहीं है। लंक-दीप, अर्थात् सुन्दरी की कटि, (सिंघल- दीप कौ) परिछाहों (छाया) को समता को नहीं पूजतो, अर्थात् नहीं पातौ ॥ कवि कहता है कि कुम्भस्थल-दीप, अर्थात् सुन्दरी का पयोधर, अरण्य (जङ्गल) में पड़ा है, अर्थात् छिपा हुआ है, इस लिये वह क्या समता करेगा। अरण्य से मुक्ताहार, वस्त्राञ्चल इत्यादि समझना चाहिए। और मधुस्थल-द्वीप, अर्थात् सुन्दरौ का गुह्याङ्ग, मनुष्य को नाश करने वाला है (क्योंकि संसार उसी विषय-तृष्णा में पड कर, वार वार मरा करता है), इस लिये ऐसा दुष्ट पापी श्रङ्ग क्या समता करेगा ॥ जब गभसथल पाठ है, तब गर्भस्यल से सुन्दरी का उदर लेना, जिस में वार वार मनुष्य वास करता है, इसी लिये वह उदर मनुष्य को हरने-वाला, अर्थात् चोराने-वाला हुआ, तब वह चोर इस द्वीप को क्या समता करेगा ॥ कवि का अभिप्राय है, कि सुन्दरियों के सब उत्तम अङ्ग जब उस दीप को समता नहीं कर सकते, तब वहाँ को दीप-शिखा सौ जो नारी हैं, उन को समता इतर सुन्दरियों से करना असम्भव है, अर्थात् उस द्वीप को नारी और उन के अङ्ग अनुपम हैं ॥ जैसे, कथा का प्रसङ्ग बैठाने के लिये, पञ्चतन्त्रादि में कर्पूर-दीप इत्यादि नाम कल्पना कर लिये हैं, उसी प्रकार जिस में श्लेष हो (अर्थात् दो अर्थ हो), ऐसा समझ कर, कवि ने दिया-दीप, सरन-दीप, कुम्भ-स्थल, और मधु-स्थल, ऐसा नाम कल्पना कर लिया है। जम्बू और लङ्का में श्राप-ही व्यर्थ है इस लिये दून को यथार्थ-ही ले लिया ॥ संसार में सब पृथिवी भर सातो द्वौप आये हैं, अर्थात् छाये हुये हैं, (परन्तु) सिंघल-द्वीप के समीप (निकट ), अर्थात् उस के साथ तुलना करने में एक दौप भी नही उत्तम ठहरता है ॥ २५ ॥ ॥