पृष्ठ:परमार्थ-सोपान.pdf/१६७

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Pada 2] Pilgrimage. १०९ (२) अनुवाद. हे साधो, मैं उसी को सद्गुरु समझता हूँ, जो सत्य- नाम का प्याला भरभर के स्वयं पीवे और मुझ को भी पिलावे | जो न मेले को जाता है, न महन्त कहलाता है और न पूजा भेंट स्वीकार करता है । जो आंखों का परदा दूर करता है और आत्म-स्वरूप दिखलाता है । जिसके दर्शन से परमेश्वर दृष्टि में आ जावे। जो अनाहत शब्द सुनाता है । जो माया के सुख को दुःख करके जानता है और स्वप्न में भी उस सुख में आसक्त नहीं होता । जो रात दिन सत्संग में अनुरक्त रहता है और शब्द में सुरत का प्रवेश करता है । कवीर कहते हैं उस सद्गुरु को भय नहीं, क्योंकि वह निर्भय पद में प्रवेश कर रसपूर्ण होता है ।