पृष्ठ:परमार्थ-सोपान.pdf/२१५

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Pada 5] Ascent. १५७ (५) अनुवाद. अब तो मेरी प्रीति जगत को विदित हो गई है । उस मोहन के प्रति मेरी अविचल प्रीति कैसे छिपी रहेगी ? क्या करूँ ? सुन्दर मूर्ति इन नेत्रों के मध्य समा गई है । रोम रोम में फँस गई है । बहुत परिश्रम करने से मैं थक गई, तब भी ( वह ) निकलती नहीं । क्या अब दूध से मिला पानी किसी प्रकार कहीं जाता है ? सूरदास कहते हैं कि प्रभु अन्तर्यामी हैं और सब के मन के स्वामी हैं ।