पृष्ठ:परमार्थ-सोपान.pdf/२६३

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Pada 28] Ascent. (२८) अनुवाद. २०५ यह साधु कारागार की श्रृंखला को तोड़ कर पार आया । जागरण का श्वास पाकर पुजारी मुक्त हो बैठा । सम्पुटों से त्राण पाते ही भ्रमर गुजारता है; पंखों को फैला कर दिशाओं में उड़ना चाहता है । वह अपरिमित हो चुका | अब सीमित सदन में क्यों रहे ? आज यह पखेरू जी भर कर उड़ेगा । जो त्वचा के आवरण के भीतर अस्थियों के पञ्जर में बसा हुआ है, वह अब परम पावन रूप को देख कर भूम- सागर में रम रहा है । अब कला विन्दु और नाद का आधार यह जीवन सफल हो गया है । ताल, स्वर, आरोह, अवरोह में वह असीमित हो कर असंग और सम हो गया है । आप अपने में मग्न होने पर वाणी आप ही आप कुछ अकथ गा उठी है । भावनां सुहागिनी होकर प्रिय से बात कहने लगी है। पुजारी स्वयं प्रतिमा बन कर इस जगत में पूज रहा है और मौन होकर साधना का भेद कह रहा है । शतदल पद्म खिल गए, पर दादुर को गन्ध नहीं आई | भाग्यशाली ने याचना के बिना ही संपत्ति पा ली । फलों से लदा हुआ तरु परमार्थ के पथ पर आपसे आप नीचे झुका हैं, जो छाया में आ गया, वह भाग्य से फल पा गया है । आज इस साधु का स्नेह पाहन के प्रतीकों तक चल पड़ा है और उसका आलोक क्षितिज के उस पार तक जगमगाता है ।