पृष्ठ:परमार्थ-सोपान.pdf/२६२

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२०४ परमार्थसोपान [ Part I Ch. 5 28. THE RELEASED SOUL, THE CAUSE OF THE SUSTENANCE AND THE UPLIFTMENT OF THE WORLD.

बन्धनों की शृंखला को तोड़कर यह पार आया । मुक्त हो बैठा पुजारी जागरण का श्वास पाया ॥ १ ॥ सम्पुटों से त्राण पाते ही भ्रमर गुजारता है । पंख फैलाकर दिशाओं में उड़ाने चाहता है ॥ २ ॥ वह अपरिमित हो चुका, अब क्यों रहे सीमित सदन में । आज जी भर कर उड़ेगा, यह पखेरू चिगगन में ॥ ३ ॥ जो त्वचा के आवरण में, अस्थिपञ्जर बस गया है । परम पावन रूप निज लख, भूम सागर रम रहा है ॥ ४ ॥ कला विन्दू नाद का आधार, अब जीवन सफल है । ताल स्वर आरोह में सीमित नहीं वह सम विमल है ॥ ५ ॥ आप अपने में मगन कुछ आप वाणी गा उठी है । भावना होकर सुहागिनि, बात प्रिय से कह उठी है ॥ ६ ॥ स्वयं प्रतिमा बन पुजारी, इस जगत में पुज रहा है । मौन होकर साधना का भेद पूरा कह रहा है ॥ ७ ॥ पद्म शतदल खिल गए पर गन्ध दादुर को न आई । भाग्यशाली ने बिना ही याचना, सम्पत्ति पाई ॥ ८ ॥ सफल तरु परमार्थ पथ पर, आप नीचे झुक गया है । आ गया जो छाँह में वह भाग्य से फल पा गया है ॥ ९ ॥ आज पाहन के प्रतीकों तक, चला है नेह इसका । जगमगाता है क्षितिज के पार तक आलोक उसका ॥ १० ॥