पृष्ठ:परमार्थ-सोपान.pdf/५०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

10 उदयलेनि सुधाकरें। जैसा भरलाचि समुद्र भरे । तैसा वेळोवेळीं ऊर्मिभरें । उचंबळत असे ॥ ६ ॥ ऐसा सात्विकांही आठा भावां परस्परें वर्ततसे हेवा । तेथ ब्रह्मानंदाची जीवा । राणीव फावली ॥ ७ ॥ ( २ ) एकनाथः - (सं. व ६. ११४ ) सात्त्विका भरणें रोमासी दाटणें । स्वेदाचें जीवन येऊं लागे । कांपे तो थरारी स्वरूप देखें नेत्रीं । अश्रु त्या भीतरी वाहताती ॥ १ ॥ आनंद होय पोटी स्तब्ध झाला कंठीं । मौन्य वाक्पुटीं धरुनी राहे । स्वरूप होय || २ | टाकी श्वासोच्छ्वास अनुभाव देखा। जिरवुनी एका VII भक्ति as मूर्धन्यरस. Let us illustrate the doctrine of भक्ति as मूर्धन्यरस from the present work. 1. भक्तयन्तर्गत शृंगाररस. भक्तिरस putting on the apparel of श्रृंगार in Mirabai:- भक्ति. फागुन के दिन चार रे । होरी खेल मना रे होरी खेलि पीव घर आये सोई प्यारी प्रिय प्यार रे' । -I-5.2 Mirabai Contrast शृंगाररस putting on the apparel of जयदेव's गीतगोविंद is attacked by Jagannath Pandit as a pseudo-spiritual work; and as being really erotic in its nature.