पृष्ठ:परमार्थ-सोपान.pdf/५२८

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30 निर्गुन ते एहि भाँति थंड, नाम प्रभाव अपार कहे ऊँ नाम बड़ राम तें, निज विचार अनुसार । } II-4-7 The Pada 'जोगी मत जा, मत जा' (I. 4. 17 ) in परमार्थ - सोपान is also a fine example of उत्कर्षालंकार where उत्कर्ष in the stages of करुणरस is very well manifest - ed. The पद ' इतनी कृपा हो स्वामी ' ( I. 3. 17 ) has also ascending stages of करुणरस, 21. विषम अननुरूप घटनावर्णन ( 8 ) छैला वनकर फिर बाग में, घर पगड़ी में फूल ! लगा झपेटा काल का, जाय चौकड़ी भूल || (b) पिय को हेरन मैं गई, हेरत गई हेराय I. 1. 1C. पिय को पहिचाना नहीं, पिय घट में गया समाय । -II. 5.22. An excellent illustration of this अलंकार, from a सुभाषित in Sanskrit on a jubilant deer giving up the ghost by falling into a well, is as follows :- (c) छित्वा पाशमपास्य कूटरचनां भक्त वा बलाद्वागुरां पर्यन्ताग्निशिखाकलापजटिलान्निःसृत्य दूरं वनात् । व्याधानां शरगोचरादतिजवेनोत्प्लुत्य धावन् मृगः कृपान्तः पतितः करोति विमुखे किं वा विधौ पौरुषम् ॥ 22. विपर्यय - We prefer this term to लेश which कुवलयानंद defines as :-- 'लेशः स्याद्दोषगुणयोर्गुणदोषत्वकल्पनम् '