आप निपट जाते थे। किसी का ग़रीब या ज़रूरतमन्द होना असम्भव था- सामुदायिक कुटुम्ब और गोत्र को भली-भांति मालम था कि बूढों, बीमार लोगों और युद्ध मे अपंग हो गये व्यक्तियो के प्रति उनका क्या कर्तव्य है। सव स्वतंत्र और समान थे-स्त्रियां भी। अभी समाज मे न दासों के लिये स्थान था, न ही आम तौर पर, दूसरे कबीलों को अपने अधीन रखने की गुजाइश थी। जब इरोक्वा लोगों ने १६५१ के लगभग , एरी लोगों को और "तटस्थ जाति" की जीता , तो उन्होंने उन्हें अपने महासंघ में समान सदस्य की हैसियत से शामिल हो जाने के लिये आमंत्रित किया। जब पराजित कवीलो ने इस प्रस्ताव को मानने से इनकार किया, सिर्फ तभी उन्हें अपने इलाको से खदेड़ दिया गया। और यह समाज कैसे नर-नारी पैदा करता था, यह इस बात से प्रगट होता है कि जो गोरे लोग इंडियनो के सम्पर्क में थे, जो अभी भ्रष्ट नहीं हुए थे, उन सभी ने इन बर्बर लोगो की प्रात्म-गरिमा, सीधे और मरल स्वभाव , चरित्र-बल और वीरता की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। इस वीरता की अनेक मिसालें अभी हाल में हमने अफ्रीका में देखी है। कुछ साल पहले जूलू काफिरो ने और दो-एक महीने पहले नूबियनों ने - इन दोनों कबीलों में गोत्र-संगठन अभी लुप्त नही हुआ है - वह काम करके दिखाया जो कोई यूरोपीय सेना नहीं कर सकती थी। 8 उनके पास हथियारों के नाम पर केवल बल्लम और भाले थे। तोप-बन्दूक या तमंचे को वे जानते तक न थे। दूसरी ओर से ब्रीचलोडर बन्दूकें दनादन गोलिया बरसा रही थों। पर ये बहादुर बराबर बढ़ते गये , यहा तक कि वे अंग्रेज़ पैदल सेना की संगीनों की नोकों पर जा पहुंचे। और उस अंग्रेज सेना को, जो व्यूह बनाकर लड़ने में दुनिया में अपना सानी नहीं रखती थी, उन्होंने अस्त- व्यस्त कर दिया और कई बार तो पीछे हटने पर मजबूर किया , बावजूद इस बात के कि दुश्मन की तुलना में उनके पास मामूली हथियार भी नहीं थे, न उनके यहां सैनिक सेवा नाम की कोई चीज कभी रही थी, और न ही उन्होंने कभी फौजी ट्रेनिग ली थी। उनकी क्षमता और सहनशीलता अंग्रेजों को इस शिकायत से प्रगट होती है कि काफिर पोड़े से भी उपादा तेज चल सकता है और चौबीस घंटे में इससे पयादा फासला तय कर सकता है। जैसा कि एक अंग्रेज चित्रकार ने कहा है, इन लोगों की छोटी-मी-छोटी मांस-पेशिया इस तरह तनी रहती है मानो इस्पात की ऐंठी हुई डोरियां - १२३
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