- द्वारा अपने गोत्र से विच्छिन्न और अपने पति के गोत्र में अंगीकृत इस स्त्री की नये गोत्र में एक विशेष स्थिति है। वह गोन की सदस्या तो है, पर गोत्र के वाकी लोगों की रक्त-सम्बन्धी नहीं है। जिस रूप में वह गोन मे अंगीकृत है, उसका ध्यान रखते हुए उस पर यह रोक नहीं लगायी जा सकती कि वह अपने इस नये गोत्र के भीतर विवाह न करे जिसमे उसने विवाह करके ही प्रवेश किया है। इसके अलावा वह गोत्र के विवाह-समूह मे अंगीकृत की गयी है और अपने पति को मृत्यु पर उसकी, अर्थात् गोत्र के एक सह-सदस्य की सम्पत्ति का एक भाग पाने की अधिकारिणी होती है। इससे अधिक स्वाभाविक और क्या व्यवस्था हो सकती है कि सम्पत्ति को गोत्र के बाहर न जाने देने के वास्ते स्त्री के लिये यह आवश्यक बना दिया जाये कि वह अपने पहले पति के गोत्र के ही किसी सदस्य से विवाह करे, और अन्य किसी गोत्र के सदस्य से विवाह न करे? परन्तु यदि इस नियम के अपवादस्वरूप कोई व्यवस्था करनी है तो इसकी इजाजत देने का हक उस आदमी से , यानी स्त्री के पहले पति से , अधिक और किसको होगा जो अपनी सम्पत्ति उसके लिये छोड़ गया है ? जिस समय वह अपनी मम्पत्ति का एक भाग अपनी पत्नी के नाम वसीयत करता है और साथ ही उसे इस बात की इजाजत दे डालता है कि वह चाहे तो विवाह के द्वारा, या विवाह के परिणामस्वरूप, यह सम्पत्ति किसी और गोत्र को हस्तातरित कर दे, उस समय वही इस सम्पत्ति का मालिक था; यानी वह अक्षरशः केवर अपनी सम्पत्ति का ही निपटारा कर रहा था। जहां तक स्त्री और पति के गोत्र के साथ उसके सम्बन्ध का मामला है, उसे गोत्र मे - स्वेच्छापूर्वक विवाह करके - लानेवाला था उसका पति । अतएव , यह बात भी विलकुल स्वाभाविक मालूम पडती है कि स्त्री को एक नया विवाह करके इस गोन को छोड़ देने की इजाजत देनेवाला उचित व्यक्ति उसका पति ही हो सकता है। साराश यह कि ज्यों ही हम रोमन गोत्र के अन्तर्विवाही होने की अजीव धारणा त्याग देते है , और ज्यो ही हम मौर्गन की तरह उसे मूलतः बहिर्विवाही मान लेते है , त्यों ही यह सारा मामला बहुत सीधा और साफ मालूम पड़ने लगता है। अन्त मे एक और भी मत है, जिसके अनुयायियों की संख्या शायद सबसे अधिक है। इस मत के माननेवालों का कहना है कि उद्धरण का अर्थ केवल यह है - II-410 १६१
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