- अब भी विशेष रुतबा हासिल था, पर अब वह शासन नही करता था, अब वह विश्व साम्राज्य का केन्द्र नही रह गया था, यहां तक कि अब वह सम्राटो और स्थानापन्न उप-सम्राटो का निवास स्थान भी नहीं था। वे लोग अव कुस्तुनतुनिया , ट्रिपर और मिलान में रहने लगे थे। रोमन राज्य एक विराट् , जटिल मशीन बन गया था, जिसका निर्माण केवल प्रजा का शोषण करने के उद्देश्य को लेकर किया गया था। तरह-तरह के करो, राज्य के लिये सेवाग्रो और उगाहियो से आम लोग गरीवी के दलदल मे अधिकाधिक धंसते जाते थे। प्रोक्यूरेटर, कर वसूल करनेवाले कर्मचारी और सिपाही जनता के साथ जिस तरह की जोर-जबर्दस्ती करते थे, उससे यह दवाव असह्य हो गया था। जिस रोमन राज्य ने सारे संसार को अपने अधीन बना डाला था, उसने यह हालत पैदा कर दी : अपने अस्तित्व का औचित्य सिद्ध करने के लिये उसने साम्राज्य के अंदर व्यवस्था और बर्बर विदेशियो से हिफ़ाजत को अपना आधार बनाया। परन्तु उसकी व्यवस्था बुरी से बुरी अव्यवस्था से भी अधिक जानलेवा थी और जिन अर्बर लोगों से वह अपने नागरिको को बचाने का ढोंग किया करता था, उन्ही का उसकी प्रजा ने तारनहार के रूप में स्वागत किया। सामाजिक अवस्थाए भी कम निराशाजनक नही थी। गणराज्य के अन्तिम वर्षों में विजित प्रान्तों का क्रूर शोषण रोम के शासन का आधार बन गया था। सम्राटों ने इस शोषण का अंत नहीं किया, उल्टे उसे व्यवस्थित रूप दे दिया। जैसे-जैसे साम्राज्य पतन के गढ़े में गिरता गया, वैसे-वैसे कर और बेगार बढ़ती गयी और उतनी ही अधिक बेशर्मी से अफ़सर लोग जनता को लूटने और उस पर धौंस जमाने लगे। पूरी जातियो पर राज करने में व्यस्त रोमवासियों का धंधा व्यापार और उद्योग कभी नहीं रहा था। केवल सूदखोरी में वे सबसे बढ़-चढ़कर थे-अपने पहले के लोगो से और बाद के लोगों से भी । जो थोड़ा-बहुत व्यापार होता था और किसी तरह चल रहा था उसे अफ़सरो की जबरिया कर-वसूली ने तबाह कर डाला। और जितना बचा था, वह भी साम्राज्य पूर्वी, यानी यूनानी भाग में होता था परन्तु वह इस पुस्तक के क्षेत्र के बाहर है। सर्वव्यापी गरीबी और तवाही, व्यापार, दस्तकारी और कला की अवनति , आबादी का ह्रास, नगरों को पतनोन्मुखता, खेती का गिरकर पहले से भी नीची अवस्था में पहुंच जाना- रोम के विश्व प्रभुत्व का अंत में यही परिणाम हुआ था। , १६१
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