आइए, अब हम यह देखें कि इस सामाजिक क्राति के फलस्वरूप गोत्र- व्यवस्था का क्या हुआ। वह उन नये तत्त्वों के सामने बिलकुल निस्सहाय थी जो बिना उसकी मदद के ही विकसित हो गये थे। उसका अस्तित्व इस बात पर निर्भर था कि गोत्र के, या यों कहिये कि कबीले के सदस्य सब एक इलाके में साथ-साथ रहें और दूसरे लोग उस इलाके में न रहे। पर यह परिस्थिति तो बहुत दिनो से नही रह गयी थी। हर जगह गोत्र और कबीले घुल-मिलकर खिचडी हो गये थे; हर जगह स्वतन्त्र नागरिको के वीच दास , प्राधित लोग और विदेशी लोग भी रह रहे थे। यायावर को जगह स्थावर जीवन-अवस्था वर्बर युग के मध्यम चरण के अंत मे ही प्राप्त की गयी थी, अब लोगो की गतिशीलता तथा निवास स्थान परिवर्तन से उसमे बार-बार व्याघात पड़ने लगा। यह चलनशीलता व्यापार के दबाव , पेशों के बदलते रहने तथा भूमि के हस्तान्तरण के कारण लाजिमी हो गयी थी। अब गोत्र-संगठन के सदस्यों के लिये सम्भव न था कि वे अपने सामूहिक मामलों को निपटाने के लिये एक जगह जमा हो सकें। अब केवल गौण महत्त्व के काम , उदाहरण के लिये धार्मिक अनुष्ठान आदि , ही मिलकर किये जाते थे और वह भी आधे मन से। गोत्र-समाज की संस्थाएं जिन जरूरतो और हितो की देखभाल के लिये स्थापित की गयी थी और जिनकी देखभाल करने के वे योग्य थी, उनके अलावा जीविकोपार्जन की अवस्थाओं मे प्रांति तथा उसके फलस्वरूप समाज के ढांचे में परिवर्तन से अब कुछ नयी जरूरते और नये हित भी पैदा हो गये थे, जो पुरानी गोत्र-व्यवस्था के लिये न केवल एक पराये तत्त्व थे, बल्कि उसके रास्ते में हर तरह को रुकावट डालते थे। थम-विभाजन से दस्तकारों के जो नये समूह पैदा हो गये थे, उनके हितो, और देहात के मुकाबले मे शहरो के विशिष्ट हितो के लिये नये निकायों की आवश्यकता थी। परन्तु इनमे से प्रत्येक समूह में विभिन्न गोत्रो, बिरादरियो और कबीलो के लोग शामिल थे। यही नहीं, उनमें विदेशी लोग भी शामिल थे। इसलिये नये निकायों का निर्माण लाजिमी तौर पर गोन-संघटन के वाहर, उसके समानातर और इसलिये उसके विरोध मे हुअा। गोन-समाज के प्रत्येक संगठन के भीतर हितो को टकार होने लगी, जो अमीरो और गरीबो के , सूदखोरो और कर्जदारो के, एक ही गोन और कबीले के अंदर माथ-माथ रहने से अपनी चरम सीमा पर पहुंच गयी। फिर नये वाशिन्दों का विशाल जन-ममुदाय था जो गोन-व्यवस्था , २१६
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