एक के लिये जो वरदान है , वह दूसरे के लिये आवश्यक रूप से अभिशाप वन जाता है। जब भी किसी वर्ग को नयी स्वतंत्रता मिलती है, तो वह किसी दूसरे वर्ग के लिये नये उत्पीड़न का कारण बन जाती है। इसकी सबसे अच्छी मिसाल मशीनी के प्रयोग के रूप मे हमे मिलती है, जिसके परिणामों से आज सभी लोग अच्छी तरह परिचित है। जहां , जैसा कि हम देख चुके है। वर्वर लोगो मे अधिकारों और कर्तव्यो के बीच भेद की कोई रेखा नहीं खीची जा सकती थी, वही सभ्यता एक वर्ग को लगभग सारे अधिकार देकर और दूसरे वर्ग पर लगभग सारे कर्तव्यो का बोझ लादकर अधिकारी और कर्तव्यों के भेद एवं विरोध को इतना स्पष्ट कर देती है कि मूर्ख से मूर्ख प्रादमी भी उन्हें समझ सकता है। लेकिन ऐसा होना नहीं चाहिये। जो शासक वर्ग के लिये कल्याणकारी है, उसे पूरे समाज के लिये कल्याणकारी होना चाहिये, जिससे शासक वर्ग अपने को अभिन्न समझता है। अतएव , सभ्यता जैसे-जैसे प्रगति करती है, वैसे-वैसे उसे उन बुराइयों पर जिन्हे वह आवश्यक रूप से पैदा करती है, प्रेम का परदा डालना पड़ता है, उन पर कलई करनी होती है, या फिर उनके अस्तित्व से इनकार करना पड़ता है। संक्षेप में, सभ्यता को ढोग व मिथ्याचार का चलन प्रारम्भ करना पड़ता है, जो पुरानी सामाजिक व्यवस्यानो में, और यहा तक कि सभ्यता की प्रारम्भिक अवस्थामो में भी, अज्ञात था और जिसकी परिणति इस घोषणा में होती है : शोषक वर्ग शोपित वर्ग का शोषण केवल और सर्वथा स्वयं शोषितो के कल्याण के लिये करता है, और यदि शोपित वर्ग इस सत्य को नही देख पाता और विद्रोही तक बन जाता है, तो इस तरह वह अपने हितैपियों के, शोपकों के प्रति हद दर्जे की कृतघ्नता का ही परिचय देता है।' और अब अन्त मे मै सभ्यता के बारे मे मोर्गन का निर्णय उद्धृत कर दूं: शुरू मे मेरा इरादा यह था कि सभ्यता की जो अद्भुत समीक्षा फूरिये की रचनानो में बिखरी हुई मिलती है, उसे मोर्गन की तथा अपनी आलोचना के साथ-साथ पेश करूं। पर दुर्भाग्यवश इसके लिये समय निकालना असम्भव है। मैं केवल यही कहना चाहता हूं कि फूरिये ने एक एकनिष्ठ विवाह तथा भूमि पर निजी स्वामित्व को सभ्यता की मुख्य विशेषतायें माना था और उसे गरीबो के खिलाफ़ धनिको का युद्ध कहा .. .. . २२८
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