"73 पैमाने के उद्योग ने चूंकि नारी को घर से निकालकर श्रम के बाजार में और कारखाने में लाकर खड़ा कर दिया है, और अक्मर उसे कुनवा-परवर प्रया में शरीक होते हैं, पर आम तौर पर पत्नी कही ज्यादा शरीक होती है। साधारण वेश्या और उसमे केवल यह अन्तर है कि मजूरी पर कान करनेवाले मजदूर की तरह, वह कार्यानुमार दर पर अपनी देह किराये पर नहीं उठाती, बल्कि एक ही बार मे सदा के लिये उसे वेचकर दामो वन जाती है। और फूरिये के ये शब्द सुविधा के सभी विवाहो रे लिये सत्य हैं : व्याकरण में जैसे दो नकारो के मिल जाने से एक सकार बन जाता है, ठीक उसी प्रकार विवाह को नैतिकता में वेश्याकर्म और वेश्यागमन के योग का फल सदाचार है। पति-पत्नी के बीच यौन-प्रेम एक नियम के रूप में केवल उत्पीड़ित वर्गों में , अर्थात् आजकल केवल सर्वहारा वर्ग में ही, सम्भव हो सकता है। और होता भी है - चाहे इस सम्बन्ध को समाज मानता हो या न मानता हो। परन्तु यहा क्लासिकीय एकनिष्ठ विवाह की सारी बुनियाद ही वह जाती है। जिस सम्पत्ति की रक्षा करने के लिये और उसे अपने पुत्रों को विरासत में सौंपने के लिये एकनिष्ठ विवाह और पुरुष के आधिपत्य की स्थापना की गयी थी, उसका यहां पूर्ण अभाव है। इसलिये पुरुष का आधिपत्य स्थापित करने के लिये यहां कोई प्रेरणा नही रहती। इससे भी बडी बात यह है कि इसके लिये साधन भी नही रहते। इस आधिपत्य की रक्षा करते हैं पूजीवादी कानून - परन्तु वे तो केवल मिल्की वर्गों के लिये और सर्वहाराषों के माथ उनके कारबार तय करने के लिये होते हैं। कानून की शरण लेने में पैसा लगता है और पैसा मजदूर के पास नहीं होता। इसलिये अपनी पत्नी के साथ जहां तक उसके रवैये का सवाल है, मजदूर के लिये कानून मान्य नहीं है। यहा बिलकुल दूसरे ढंग के निजी और सामाजिक सम्बन्धों का निर्णायक महत्त्व होता है। इसके अतिरिक्त, बना दिया है, इसलिये सर्वहारा के घर में पुरुष के अधिपत्य के आखिरी अवशेषों का प्राधार भी पूरी तरह खतम हो जाता है। यदि कुछ बच रहता है तो स्त्रियों के प्रति वह क्रूरता, जो एकनिष्ठ विवाह को स्थापना के बाद से पुरष की प्रकृति का एक अंग बन गया है। इस प्रकार, सर्वहारा परिवार TO
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