- शुद्धतः एकनिष्ठ परिवार नहीं रह जाता, यहां तक कि उन सूरतों में भी, जहां पति-पत्नी में उत्कट प्रेम होता है और दोनों पक्ष एक दूसरे के प्रति बिलकुल वफादार होते है, और जहा चाहे उन्हें सांसारिक तथा आध्यात्मिक सारे सुख हों, वहा भी एकनिष्ठ विवाह का शुद्ध रूप नहीं मिलता। इसलिये एकनिष्ठ विवाह के सदा-सर्वदा माथ चलनेवाली उन दो प्रथाओं की - हैटेरिपम और व्यभिचार को यहां लगभग नगण्य भूमिका रह जाती है। यहां नारी ने वास्तव में पति से अलग हो जाने का अधिकार फिर से प्राप्त कर लिया है, और जब पुरुष और स्त्री साथ-साथ नहीं रह सकते, तो वे अलग हो जाना बेहतर समझते हैं। साराश यह कि सर्वहारा विवाह व्युत्पत्तिमूलक अर्थ मे एकनिष्ठ होता है, परन्तु ऐतिहासिक अर्थ में नहीं। निस्सदेह हमारे न्याय-शास्त्रियों का यह मत है कि कानून बनाने में जो प्रगति हुई है, उससे नारी के लिये शिकायत करने के कारण अधिकाधिक खतम होते गये है। कानून की आधुनिक सभ्य प्रणालियां इस बात को अधिकाधिक मानती जा रही है कि पहले तो, यदि विवाह को सफल होना है, तो आवश्यक है कि दोनो पक्ष स्वेच्छा से आपस में विवाह करने के लिए राजी हो, और दूसरे यह कि विवाह-काल मे दोनों पक्षों के समान अधिकार और समान कर्तव्य होने चाहिये। परन्तु यदि इन दोनों सिद्धान्तो पर सचमुच पूरी तरह अमल किया जाये, तो नारियां जो कुछ चाहती है, वह सब उन्हे मिल जायेगा। यह वकीलों जैसी दलील ठोक उमी प्रकार की दलील है जैसी दलीलें देकर उग्रवादी जनतंत्रवादी पूंजीपति सर्वहारा की दलीलों को खारिज कर देता है। मजदूर और पंजीपति के बारे में भी तो यही माना जाता है कि उनके बीच श्रम-सविदा स्वेच्छा से की जाती है। परन्तु इस संविदा को स्वेच्छापूर्वक किया गया इसलिये समझा जाता है कि कानून की निगाह में कागज पर दोनो पक्ष समान है। एक पक्ष को अपनी भिन्न वर्ग-स्थिति के कारण जो शक्ति प्राप्त है, जो दबाव वह दूसरे पक्ष पर डाल सकता है, उससे , दोनो पक्षों की असली आर्थिक स्थिति से , कानून को कोई वास्ता नहीं है। और कानून की निगाह में तो जब तक यह संविदा बरकरार है, और जब तक दोनों में से कोई एक पक्ष खुद अपने अधिकारी को नहीं त्याग देता, तब तक दोनों पक्षो के समान अधिकार रहते हैं। यदि वास्तविक मार्थिक परिस्थिति मजदूर के पास ममान अधिकारों का कोई - .
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