. था जो पुरुषों को करना पड़ता था। पितृसत्तात्मक परिवार की स्थापना से यह परिस्थिति बदल गयी, और एकनिष्ठ वैयक्तिक परिवार की स्थापना के बाद तो और भी बड़ा परिवर्तन हो गया। घर का प्रबंध करने के काम का सार्वजनिक रूप जाता रहा। अब वह समाज को चिन्ता का विषय न रह गया। यह एक निजी काम बन गया। पत्नी को सार्वजनिक उत्पादन के क्षेत्र से निकाल दिया गया, वह घर की मुख्य दासी बन गयी। केवल बडे पैमाने के आधुनिक उद्योग ने ही उसके लिये -पर अब भी केवल सर्वहारा स्त्री के ही लिये - सार्वजनिक उत्पादन के दरवाजे फिर खोले है, पर इस रूप मे कि जब नारी अपने परिवार की निजी सेवा मे अपना कर्तव्य पालन करती है, तब उसे सार्वजनिक उत्पादन के बाहर रहना पड़ता है और वह कुछ कमा नहीं सकती, और जब वह सार्वजनिक उद्योग में भाग लेना और स्वतंत्र रूप से अपनी जीविका कमाना चाहती है, तब वह अपने परिवार के प्रति अपना कर्तव्य पूरा करने की स्थिति में नहीं होती। और जो वात कारखाने में काम करनेवाली स्त्री के लिये सत्य है, वह डाक्टरी या वकालत करनेवाली स्त्री के लिये भी, यानी सभी तरह के पेशों में काम करनेवाली स्त्रियों के लिए सत्य है। आधुनिक वैयक्तिक परिवार, नारी की खुली या छिपी हुई घरेलू दासता पर आधारित है। और आधुनिक समाज वह समवाय है जो केवल वैयक्तिक परिवारों के अणुप्रो से मिलकर बना है। आज अधिकतर परिवारों में, कम से कम मिल्को वर्गों मे, पुरुष को जीविका कमानी पड़ती है और परिवार का पेट पालना पड़ता है, और इससे परिवार के अन्दर उसका आधिपत्य कायम हो जाता है और उसके लिये किसी कानूनी विशेषाधिकार की आवश्यकता नही पड़ती। परिवार में पति वुर्जुमा होता है, पली सर्वहारा की स्थिति में होती है। परन्तु उद्योग-धधो के संमार मे सर्वहारा जिस आर्थिक उत्पीड़न के बोझ के नीचे दबा हुआ है, उसका विशिष्ट रूप केवल उसी समय स्पष्ट होता है, जब पूजीपति वर्ग के तमाम काननी विशेषाधिकार हटाकर अलग कर दिये जाते है और कानून की नजरों में दोनों वर्गों की पूर्ण समानता स्थापित हो जाती है। जनवादी जनतन दोनों वर्गों के विरोध को मिटाता नहीं है, इसके विपरीत, वह तो उनके लिये लड़कर फैसला कर लेने के वास्ते मैदान साफ कर देता है। इसी प्रकार आधुनिक परिवार मे नारी पर पुरुष के आधिपत्य का विशिष्ट रूप, और उन दोनो के बीच वास्तविक सामाजिक समानता स्थापित करने की
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