के दुख-सुख का वर्णन किया है, वे दास मान थे, उनका राज-काज में कोई भाग नहीं था, क्योकि वह केवल स्वतन्त्र नागरिको का क्षेत्र था। दासों के मिवा, यदि कही प्रेम-व्यापार घटित होता था तो केवल पतनोन्मुख संसार के विघटन के फलस्वरूप ही होता था, और वह भी उन स्त्रियो के साथ होता था जो अधिकृत समाज के बाहर समझी जाती थी- यानी हैटेराओं, अर्थात् विदेशी या स्वतंत्र कर दी गयी स्त्रियो के साथ होता था। एथेंस में यह बात उसके पतन के प्रारम्भ मे देखी गयी थी और रोम मे उसके सम्राटो के काल मे। स्वतंत्र नागरिको मे यदि कभी पुरुष और नारी के बीच सचमच प्रेम होता था, तो केवल विवाह का बंधन तोड़कर व्यभिचार के रूप मे। प्राचीन काल में प्रेम के उस प्रसिद्ध कवि , वृद्ध एनानियोन को ही लीजिये। हमारे अर्थ में यौन-प्रेम का उसके लिये इतना कम महत्त्व था कि वह इस वात तक से उदासीन था कि माशूक औरत है या मर्द । प्राचीनकालीन सरल यौन-इच्छा , eros से, हमारा यौन-प्रेम बहुत भिन्न है। एक तो, हमारा यौन-प्रेम यह मानकर चलता है कि यह प्रेम दोतरफा है, जिससे प्रेम किया जाये उससे प्रेम मिलता भी है। इस तरह औरत का दर्जा मर्द के बराबर होता है, जबकि प्राचीनकालीन eros में औरत की हमेशा राय भी नही ली जाती थी। दूसरे, योन-प्रेम इतना तीव्र और स्थायी रूप धारण कर लेता है कि दोनो पक्षो को लगता है कि यदि उन्होंने एक दूसरे को न पाया, या वे एक दूसरे से अलग रहे, तो यह यदि सबसे बड़ा नही, तो बहुत बड़ा दुर्भाग्य अवश्य होगा। एक दूसरे को पाने के लिये वे भारी खतरों का सामना करते है, यहा तक कि अपने जीवन को भी संकट में डालने में नहीं हिचकिचाते। प्राचीन काल में यह सब , अधिक से अधिक , केवल विवाहेतर यौन-व्यापार में होता था। और अन्तिम बात यह है कि अब सम्भोग का औचित्य अथवा अनौचित्य एक नये नैतिक मानदंड से निश्चित होने लगता है। अब केवल यही सवाल नहीं किया जाता कि सम्भोग वैध है अथवा अवैध , बल्कि यह भी किया जाता है कि वह पारस्परिक प्रेम का परिणाम है या नहीं। कहने की आवश्यकता नही कि सामन्ती या पूजीवादी व्यवहार में दूसरे नैतिक मानदंडों का जो हाल हुआ उससे बेहतर इस नये नैतिक मानदंड का नहीं हुआ- अर्थात् इसकी भी उपेक्षा कर दी गयी। परन्तु अगर उसका हाल बेहतर नही तो वदतर भी नहीं हुआ। अन्य मानदंडों के समान यह मानदंड भी : . ३' 7-410 १७
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