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संशय.
 

प्रकरण २२.


संशय

अज्ञपुरुष श्रद्धा रहित संशय युत विनशाय॥
बिनाश्रद्धा दुहुं लोकमैं ताकों सुख न लखाय॥*[१]

श्रीमद्भगवद्‌गीता॥

लाला ब्रजकिशोर उठकर कपड़े नहीं उतारनें पाए थे इतने मैं हरकिशोर आ पहुंचा.

"क्यों! भाई! आज तुम अपने पुराने मित्रसै कैसे लड़ आए?" ब्रजकिशोरने पूछा.

"इस्सै आपको क्या? आपके हां तो घीके दिए जल गए होंगे" हरकिशोरने जबाव दिया.

"मेरे हां घीके दिये जलने की इस्मै कौन्सी बात थी?" ब्रजकिशोरने पूछा.

"आप हमारी मित्रता देखकर सदैव जला करते थे आज वह जलन मिट गई"

"क्या तुमारे मनमैं अबतक यह झूंटा वहम समा रहा है?" ब्रजकिशोरने पूछा.

"इस्मैं कुछ संदेह नहीं" हरकिशोर हुज्जत करनें लगा. "मैं ठेठसै देखता आता हूं कि आप मुझको देखकर जल्ते हैं मेरी


    • अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति॥

    नायंलोको स्तिनपरो नमुर्ख संशयात्मनः॥