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परीक्षागुरु.
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बिश्वास बैठाना, अन्त मैं उन्की रक़म मारकर एक किनारे लगे बैठना"

"मेरी तो जन्म भर की कमाई यही है मैंने समझा थेर के थोड़ीसी उमर बाकी रही है सो इस्मैं आराम सै कट जायगी परंतु अब क्या करूंं?” एक बुड्ढा आंखों मैं आंसू भरकर कहनें लगा "न मेरी उमर महनत करनें की है न मुझको किसी का सहारा दिखाई देता है जो तुम सै मेरी रक़म न पटेगी तो मेरा कहां पता लगेगा?"

“हमारे तो पांच हज़ार रुपे लेनें हैं परंतु लाओ इस्समय हम चार हज़ार मैं फैसला करते हैं” एक लेनदार ने कहा.

औरों की जमा मारकर सुख भोगनें मैं क्या आनन्द आता होगा?” एक और मनुष्य बोल उठा.

इतनें मैं और बहुतसे लोगों की भीड़ आगई. वह चारों तरफ सै मदनमोहन को घेरकर अपनी, अपनी कहनें लगे. मदनमोहन की ऐसी दशा कभी काहे को हुई थी? उस्के होश उड़ गए चुन्नीलाल, शिंभूदयाल वगैरे लोगों को धैर्य देनें की कोशिश करते थे परंतु उन्को कोई बोलनें ही नहीं देता था जब कुछ देर खूब गड़बड़ हो चुकी लोगों का जोश कुछ नरम हुआ है तब चुन्नीलाल पूछनें लगा "आज क्या है? सब के सब एका एक ऐसी तेजी मैं कैसे आ गए? ऐसी गड़बड़ सै कुछ भी लाभ न होगा जो कुछ कहना हो धीरे से समझा कर कहो"

"हम को और कुछ नहीं कहना हम तो अपनी रक़म चाहते हैं” निहालचन्द नें जवाब दिया.