दिवाई जिस्पर लाला मदनमोहन नें अपनी अंगुली सै हीरे की एक बहुमुख्य अंगूठी उतार कर ब्रजकिशोर को दी और कहा “आप की महनत के आगे तो यह महन्ताना कुछ नहीं है परन्तु अपना पुराना घर और मेरी इस दशा का विचार करके क्षमा करिये"
यह बात सुन्ते ही एक बार लाला ब्रजकिशोर का जी भर आया परन्तु फिर तत्काल सम्हल कर बोले "क्या आपनें मुझको ऐसा नीच समझ रक्खा है कि मैं आप का काम महन्ताने के लालच सै करता हूं? सच तो यह है कि आप के वास्ते मेरी जान जाय तो भी कुछ चिन्ता नहीं परन्तु मेरी इतनी ही प्रार्थना है कि आपने अंगूठी दे कर मुझसै अपना मित्र भाव प्रगट किया सो मैं आपकी बराबर का नहीं बना चाहता मैं आपको अपना मालिक समझता हूं इसलिये आप मुझे अपना ‘हल्कःबगोश (सेवक) बनायं”
"यह क्या कहते हो! तुम मेरे भाई हो क्यों कि तुमको पिता सदा मुझसै अधिक समझते थे हां तुम्हैं बाली पहन्हें की इच्छा हो तो यह लो मेरी अपेक्षा तुम्हारे कानमैं यह बहुमूल्य मोती देखकर मुझको अधिक सुख होगा परन्तु ऐसे अनुचित बचन मुखसें न कहो" यह कह कर लाला मदनमोहननें अपनें कानकी बाली ब्रजकिशोरको दे दी।
“कल हरकिशोर आदि के मुकद्दमें होंगे उनकी जवाबदिही का विचार करना है कागज तैयार करा कर उन्सै रहत (बदर) छांटनी है इसलिये अब आज्ञा हो" यह कह कर ब्रजकिशोर रुखसत हुए और लाला मदनमोहन भोजन करनें गए।