प्रकरण ३९.
प्रेत भय.
पियत रुधिर बेताल बाल निशिचरन साथ पुनि॥
करत बमन बिकराल मत्त मन मुदित घोर धुनि॥
सद्य मांस कर लिये भयंकर रूप दिखावत॥
रुधिरासव मद मत्त पूतना नाचि डरावत॥
मांस भेद बस बिबस मन जोगन नाचहिं बिबिध गति॥
बीर जनन की बीरता बहु बिध बरणैं मन्द मति॥÷[१]
रसिकजीवने.
सन्ध्या का समय है कचहरी के सब लोग अपना काम बन्द करके घर को चल्ते जाते हैं. सूर्य के प्रकाश के साथ लाला मदनमोहनके छूटनें की आश भी कम होती जाती है. ब्रजकिशोर नें अब तक कुछ उपाय नहीं किया. कचहरी बन्द हुए पीछे कल तक कुछ न हो सकेगा रात को इसी छोटीसी कोठरी मैं अंधेरे के बीच ज़मीन पर दुपट्टा बिछा कर सोना पडेगा. कहां मित्र मिलापियों के वह जल्से! कहां पानी प्यानें के लिये एक ख़िदमतगार तक पास न हो! इन बातों के बिचार सै लाला
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÷ रक्तं नक्तं चरौघेः पिवति चैवमति व्यग्रकुन्तः शकुन्तः
क्रव्यं नव्यं गृहीत्वा प्रणुदति मुदितो मत्तवेतालबालः॥
क्रीडत्यब्रीड मस्मिन् रुधिर मधुवशात् पूतनी कुत्सितांगी
योगिन्धो मांसमेदः प्रमुदितमनसः शूरशक्तिं स्तुवन्ति॥