पृष्ठ:परीक्षा गुरु.djvu/९३

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सुखदुःख.
 


आत्म प्रसाद है इसी तरह दुष्कर्म का फल आत्मग्लानि, आंतरिक दुःख अथवा पछतावा हुए बिना सर्वथा नहीं रहता मनुस्मृति में लिखा है "पापी समुझत पाप कर काहू देख्यो नाहिं॥ पैसुर अरुनिज आत्मा निस दिन देखत जाहिं॥+" लाला ब्रजकिशोर कहने लगे "जिस समय कोई निकृष्ट प्रवृत्ति अत्यंत प्रबल होकर धर्म प्रवृत्ति की रोक नहीं मानती उस समय हम उसकी इच्छा पूरी करने के लिये पाप करते हैं परन्तु उस काम से निवृत्ति होते ही हमारे मन में अत्यंत ग्लानि होती है. हमारी आत्मा हमको धिक्कारती है और लोक परलोक के भय से चित्त बिकल रहता है जिसने अपने अधर्म से किसी का सुख हर लिया है अथवा स्वार्थपरता के बसवर्ती होकर उपकार के बदले अपकार किया है, अथवा छल-बल से किसी का धर्म भ्रष्ट कर दिया है, जो अपने मन में समझता है कि मुझसे फलाने का सत्यानाश हुआ, अथवा मेरे कारण फलाने के निर्मल कुल में कलंक लगा, अथवा संसार में दुःख के सोते इतने अधिक हुए मैं उत्पन्न न हुआ होता तो पृथ्वी पर इतना पाप कम होता, केवल इन बातों की याद उसके हृदय विदीर्ण करने के लिये बहुत है और जो मनुष्य ऐसी अवस्था में भी अपने मन का समाधान रख सके, उसको मैं वज्रहृदय समझता हूँ जिसने किसी निर्धन मनुष्य के साथ छल अथवा विश्वासघात कर के उसकी अत्यंत दुर्दशा की है उसकी आत्म ग्लानि और आंतरिक दुःख का वर्णन कौन कर सकता है? अनेक प्रकार के भोगविलास करनेवालों को भी समय पाकर अवश्य


+ मन्यन्ते वै पापकृतो न कश्चित्पश् यतीतिन:॥
तांस्तु देवा: पप्रश्यन्ति स्वस्यै वान्तर पूरुष: