पृष्ठ:परीक्षा गुरु.djvu/९५

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सुखदुःख.
 


है" लाला ब्रजकिशोर कहने लगे “जैसै दुर्गंध में रहने वाले मनुष्यों के मस्तक में दुर्गंध समा जाती है तब उनको वह दुर्गंध नहीं मालूम होती अथवा बार-बार तरवार को पत्थर पर मारने से उसकी धार अपने आप भोंटी होती जाती है इसी तरह ऐसे मनुष्यों के मन से अभ्यासवस अधर्म की ग्लानि निकल कर उनके मन पर निकृष्ट प्रवृत्तियों का पूरा अधिकार हो जाता है. विदुरजी कहते हैं "तासों पाप न करत बुध किये बुद्धि को नाश॥ बुद्धि नासते बहुरि नर पापै करत प्रकाश॥* यह अवस्था बड़ी भयंकर है और सन्निपात के समान इससे आरोग्य होने की आशा बहुत कम रहती है. ऐसी अवस्था में निस्संदेह शिंभूदयाल के कहने मूजब उनको अनुचित रीति से अपनी इच्छा पूरी करने में सिवाय आनन्द के कुछ पछतावा नहीं होता परन्तु उनको पछतावा हो या न हो ईश्वर के नियमानुसार उन्हें अपने पापों का फल अवश्य भोगना पड़ता है. मनुस्मृति में लिखा है “वेद, यज्ञ, तप, नियम अरु बहुत भांति के दान॥ दुष्ट हृदय को जगत में करत न कुछ कल्यान॥+” ऐसे मनुष्यों को समाज की तरफ़ से, राज की तरफ से अथवा ईश्वर की तरफ से अवश्य दंड मिलता है और बहुधा वह अपना प्राण देकर उससे छुट्टी पाते


तस्मात् पापं न कुर्वीत पुरुष: शंसितव्रत।
पापं प्रज्ञां नाशयति क्रियमाणं पुनः पुनः।।
वेदात्यागश्चयज्ञाथ नियमाश्च तपांसिच॥
नविप्रभावदुष्टस्य सिद्धि गच्छन्ति कर्हिचित्।।
+ अकस्मा देव कुप्यंति प्रसीदंत्यंनिमित्तज्ञ:॥
शीलमेतदसाधूनामभ्रं पारिप्लवं यथा.