इतने में चपरासी ने फिर पुकारा---बाबूजी हमें बड़ी देर हो रही है।
शारदा---कह क्यों नहीं देते कि इस वक्त न आयेंगे।
फतहचंद---ऐसा कैसे कह दूं भाई, रोज़ी का मामला है !
शारदा---तो क्या प्राण देकर काम करोगे ? सूरत नहीं देखते अपनी। मालूम होता हैं छः महीने के बीमार हो।
फतहचंद ने जल्दी-जल्दी दालमोट की दो-तीन फंकियाँ लगाई, एक ग्लास पानी पिया और बाहर की तरफ़ दौड़े। शारदा पान बनाती ही रह गई।
चपरासी ने कहा---बाबूजी! आपने बड़ी देर कर दी। अब जरा लपके चलिये, नहीं तो जाते ही डाँट बतावेगा।
फ़तहचंद ने दो कदम दौड़कर कहा---चलेंगे तो भाई आदमी ही की तरह, चाहे डांट बतावे या दाँत दिखाये। हमसे दौड़ा तो नहीं जाता। बँगले ही पर है न ?
चपरासी---भला वह दफ्तर क्यों आने लगा। बादशाह है कि दिल्लगी!
चपरासी तेज़ चलने का आदी था। बेचारे बाबू फ़तहचंद धीरे-धीरे जाते थे। थोड़ी ही दूर चलकर हॉफ उठे। मगर मर्द तो थे ही, यह कैसे कहते कि भाई जरा और धीरे चलो। हिम्मत करके क़दम उठाते जाते थे, यहाँ तक कि