यह कहकर साहब हंटर लेने चले। फतहचंद दफ्तर के बाबू होने पर भी मनुष्य ही थे। यदि वह बलवान होते तो उस बदमाश का खून पी जाते। अगर उनके पास कोई हथियार होता, तो उस पर जरूर चला देते। लेकिन उस हालत में तो मार खाना ही उनकी तक़दीर में लिखा था। वे बेतहाशा भागे और फाटक से बाहर निकलकर सड़क पर आ गये।
३
दूसरे दिन फ़तहचंद दफ्तर न गये। जाकर करते ही क्या ! साहब ने फ़ाइल का नाम तक न बताया। शायद नशा में भूल गया। धीरे-धीरे घर की ओर चले। मगर इस बेइज्ज़ंती ने पैरों में बेड़ियाँ-सी डाल दी थीं। माना कि वह शारीरिक बल में साहब से कम थे, उनके हाथ में कोई चीज़ भी न थी; लेकिन क्या वह उसकी बातों का जवाब न दे सकते थे ? उनके पैरों में जूते तो थे। क्या वह जूते से काम न ले सकते थे ? फिर क्यों उन्होंने इतनी ज़िल्लत बरदाश्त की ?
मगर इलाज ही क्या था। यदि वह क्रोध में उन्हें गोली
मार देता, तो उसका क्या बिगड़ता। शायद एक-दो महीने