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स्तीफ़ा


की सादी क़ैद हो जाती। सम्भव है दो-चार सौ रुपये जुर्माना हो जाता, मगर इनका परिवार तो मिट्टी में मिल जाता। संसार में कौन था जो इनके स्त्री-बच्चों की खबर लेता। वह किसके दरवाजे हाथ फैलाते। यदि उनके पास इतने रुपए होते, जिनसे उनके कुटुम्ब का पालन हो जाता, तो वह आज इतनी जिल्लत न सहते। या तो मर ही जाते या उस शैतान को कुछ सबक ही दे देते। अपनी जान का इन्हें डर न था। ज़िन्दगी में ऐसा कौन सुख था, जिसके लिए वह इस तरह डरते। ख्याल था सिर्फ़ परिवार के बरबाद हो जाने का।

आज फ़तहचंद को अपनी शारीरिक कमजोरी पर जितना दुःख हुआ, उतना कभी न हुआ था। अगर उन्होंने शुरू ही से तन्दुरुस्ती का ख्याल रखा होता, कुछ कसरत करते रहते, लकड़ी चलाना जानते होते, तो क्या इस शैतान की इतनी हिम्मत होती कि वह उनका कान पकड़ता ! उसकी आँखें निकाल लेते। कम से कम इन्हें घर से एक छुरी लेकर चलना था और न होता दो-चार हाथ जमाते ही-पीछे देखा जाता, जेलखाना ही तो होता या और कुछ !

वे ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते थे त्यों-त्यों उनकी तबीयत अपनी कायरता और बोदेपन पर और भी झल्लाती थी।

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