पृष्ठ:पाँच फूल.djvu/६७

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ज़िहाद

एक सवार ने खज़ाँचन्द की ओर बन्दूक तानकर कहा--उड़ा दूँ सिर मरदूद का ? इससे खून का बदला लेना है !

दूसरे सवार ने जो इनका सरदार मालूम होता था कहा--नहीं-नहीं, यह दिलेर आदमी है। ख़ज़ाँचन्द, तुम्हारे ऊपर दग़ा, खून और कुफ़्र, ये तीन इल्ज़ाम हैं, और तुम्हें क़त्ल कर देना ऐन सवाब है, लेकिन हम तुम्हें एक मौक़ा और देते हैं। अगर तुम अब भी खुदा और रसूल पर ईमान लाओ, तो हम तुम्हें सीने से लगाने को तैयार हैं। इसके सिवा तुम्हारे गुनाहों का और कोई कफ़ारा (प्रायश्चित्त) नहीं है। यह हमारा आखिरी फ़ैसला है। बोलो, क्या मंजूर है ?

चारों पठानों ने कमर से तलवारें निकाल ली और उन्हें खज़ाँचन्द के सिर पर तान दिया, मानो 'नहीं' का शब्द मुँह से निकलते ही चारों तलवारें उसके गर्दन पर चल जायँगी।

खज़ाँचन्द का मुखमण्डल विलक्षण तेज से आलोकित हो उठा। उसकी दोनों आँखें स्वर्गीय ज्योति से चमकने लगी। दृढ़ता से बोला--तुम एक हिन्दू से यह प्रश्न कर रहे हो ? क्या तुम समझते हो कि जान के खौफ़ से वह

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