मुसलमान होने की शर्त न थी। ख़ज़ाँचन्द के बलिदान ने
धर्म के भूत को परास्त कर दिया। मगर धर्मदास को
पठानों ने इस्लाम की दीक्षा लेने पर मजबूर किया। एक
दिन नियत किया गया। मसजिद में मुल्लाओं का मेला
लगा, और लोग धर्मदास को उसके घर से बुलाने आये।
पर उसका वहाँ पता न था। चारों तरफ़ तलाश हुई। कहीं
निशान न मिला।
साल-भर गुज़र गया। सन्ध्या का समय था। श्यामा अपने झोपड़े के सामने बैठी भविष्य की मधुर कल्पनाओं में मग्न थी। अतीत उसके लिए दुःख से भरा हुआ था। वर्तमान केवल एक निराशामय स्वप्न था। सारी अभिलाषाएँ भविष्य पर अवलम्बित थीं। और भविष्य भी वह जिसका इस जीवन से कोई सम्बन्ध न था। आकाश पर लालिमा छाई हुई थी। सामने की पर्वतमाला स्वर्णमयी शान्ति के आवरण से ढकी हुई थी। वृक्षों की कॉपती हुई पत्तियों से सरसराहट की आवाज़ निकल रही थी, मानो कोई वियोगी आत्मा पत्तियों पर बैठी हुई सिसकियाँ भररही हो।
उसी वक्त एक भिखारी फटे हुए कपड़े पहने झोपड़ी के सामने खड़ा हो गया। कुत्ता ज़ोर से भूँक उठा। श्यामा ने चौंककर देखा और चिल्ला उठी--धर्मदास !