पृष्ठ:पाँच फूल.djvu/७४

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ज़िहाद

धर्मदास ने वहीं जमीन पर बैठते हुए कहा--हाँ श्यामा, मैं अभागा धर्मदास ही हूँ। साल-भर से मारा-मारा फिर रहा हूँ। मुझे खोज निकालने के लिए इनाम रख दिया गया है। सारा प्रान्त मेरे पीछे पड़ा हुआ है। इस जीवन से अब ऊब उठा हूँ। पर मौत भी नहीं आती।

धर्मदास एक क्षण के लिए चुप हो गया। फिर बोला--क्यों श्यामा, क्या अभी तुम्हारा दिल मेरी तरफ़ से साफ़ नहीं हुआ ? तुमने मेरा अपराध क्षमा नहीं किया ?

श्यामा ने उदासीन भाव से कहा--मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझी।

'मैं अब भी हिन्दू हूँ। मैंने इस्लाम नहीं क़बूल किया है।'

'जानती हूँ।'

'यह जानकर भी तुम्हें मुझ पर दया नहीं आती ?'

श्यामा ने कठोर नेत्रों से देखा और उत्तेजित होकर बोली--तुम्हें अपने मुँह से ऐसी बातें निकालते शर्म नहीं आती ! मैं उस धर्मवीर की ब्याहता हूँ जिसने हिन्दू-जाति का मुख उज्ज्वल किया है। तुम समझते हो कि वह मर गया ? यह तुम्हारा भ्रम है। वह अमर है। मैं इस समय

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