पृष्ठ:पार्टनर(hindi).pdf/४६

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डॉक्टर मुझे नंगे-अधनंगे लड़कों के चित्र दिखाता है। मेरा लिंग इससे ऐंठ जाता है। तब शॉक देता है। बहुत दुखता है। तकलीफ होती है। नौकरी जबसे लगी है, तबसे समेटा हुआ मेरा आत्मविश्वास इस ट्रिटमेंट से ढ़लने लगा है। खुद को मिटाके, एक नया पुरुष मुझमें भरना केवल नामुनकिन है। मुझे इस डॉक्टर से नफरत होने लगी है। मुझे तो शक हो रहा है कि शॉक देकर मेरी पीड़ा देखना वह एन्जॉय करता है। क्या वह सोचता होगा कि मेरी यही औकात है? हमारे देश के कितपत डॉक्टर्स हटके रुदीवादी है, परपंचानिष्ठ विचार रखते हैं। ऐसे अनेक डॉक्टरों ने मेरे जैसे अनेक लोगों पर ठीक करने के बहाने, इस प्रकार के क्रुर इलाज बड़ी बेरहमी से किस है। इन उपचारों से पहले डॉक्टर बताते है कि, WHO (World Health Organization) और APA (American Psychiatrist Association) इसे डिसऑर्डर नहीं मानते और आगे कहते हैं, फिर भी पेशंट की इच्छा हो तो हम कोशिश जकर करेंगे। टिपिकल दोहरा मापदंड। मूलतः यह बीमारी है ही नहीं, तो इसे दवा की क्या जरूरत? सेसे कई लड़के-लड़कियाँ इस ट्रिटमेंट से ऊब जाते है, और ठीक हो जाने का दिखावा करते हैं। माँ-बाप समझ बैठते हैं हमारा बेटा-बेटी ठीक हो गये हैं और डॉक्टर मानते हैं की इलाज कामयाब हो गया। इस इलाजले कोई बदलाव नहीं आता यह सत्य स्वीकारने की किसीमें हिम्मत नहीं है। कोई यह बात मानने को ही तैयार नहीं कि यह कोई बीमारी नहीं है, ना कि कोई विकृति। समाज बदलने को तैयार नहीं, इसलिए अपने बच्चो को बदलने की नीति सरासर गलत है। समाज का दृष्टिकोन बदलना ही निहायत जरुरी है। मैं पुरुषों का विचार जितना दूर रखना चाहता हूँ, उतना ही वो मुझे सताता है। डॉक्टर कहता है, मैंने ठीक होने की ठान लेना जरुरी है। लेकिन कैसे? व्यक्ती को पानी की प्यास लगती है, वैसी मुझे पुरुषों की आसक्ति है। चुतियाँ आखिर किसको धोखा दे रहा है? मुझे? माँ को? या खुद अपने आपको? ३७...