पृष्ठ:पार्टनर(hindi).pdf/४५

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माँ की तबियत ठीक नहीं है। कुछ खाती नहीं। बहुत दुबली हो गई है। तीन दिन से मैं छुट्टि पर हूँ। रसोईघर सँभाल रहा हूँ। पिताजी कुछ नहीं करते। काम से आने के बाद टीवी के सामने बैठते है। खाना भी बाहर के कमरे में ही अकेले खाते हैं। माँ को एक शब्द से भी नहीं पूछतें। अब माँ की तबियत थोडी ठीक है। फिरभी दुबलाहट अभी भी बाकी है। पिछले तीन दिन से मैं सोया नहीं हूँ। माँ की बीमारी का कारण मैं ही हूँ। मेरे कारण ही माँ की तबियत बिगड़ गई। भगवान जाने, हम किस जनम के पाप भुगत रहे हैं। काम पर जाने लगा हूँ। वहाँ से वापस घर आने की इच्छा नहीं होती। मालिक को मेरा काम पसंद आया है। अब और जिम्मेदारीयाँ मुझ पर सौंपी जा रही है। तनख्वाह भी बढ़ गई है। आज अखबार में एक सायकिअॅट्रिस्ट का आर्टिकल पढ़ा। मेंटल डिस्ऑर्डर पर लिखा है। उसने कहा है कि समलैंगिक होना एक डिस्ऑर्डर है। ऐसे भी कहा है कि ये लड़के ठीक हो सकते है। उस सायकिअॅट्रिस्ट का फोन नंबर माँ ने डिरेक्टरी से ढूंढ़ निकाला। फोन करके अपॉईंटमेंट ले ली। मुझे जाने में शरम आ रही थी। मालूम था कि यह केवल समय और पैसे की बरबादी है। लेकिन क्या करूँ, माँ के लिए मन छटपटाता है। मजे की बात यह है कि छात्रा, साधु, ज्योतिषी सब नाकामयाब रहने के बाद माँ को मुझे सायकिअॅट्रिस्ट के पास ले जाने की सूझी। सायकिअॅट्रिस्ट ने सब कुछ सुन लिया और इसे विकृति बताया। 'शॉक थेरपी से ठीक हो जाएगा' करके तसल्ली भी दी। इसके लिए कम-से-कम डेढ़-दो साल तक इलाज करना पड़ेगा। हर १५ दिन में एक सेशन। एक सेशन की फीस दो सौ रुपये। और उपर से कहा 'पेशंट ने मन लगाकर इलाज करवाना चाहिए। अगर पेशंट मन लगाकर कोशिश नहीं करेगा तो ट्रिटमेंट का कोई फायदा नहीं। माँ बेचारी असहाय कह दी, 'वो करेगा। पूरी कोशिश करेगा। बस उसे ठीक कर दो। जिंदगी भर आपके एहसान भूल न पाऊँगी।' धीरे धीरे अब मुझे माँ पर भी गुस्सा आने लगा है। ३६... ...