पृष्ठ:पीर नाबालिग़.djvu/१०४

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चतुरसेन की कहानियाँ भारी धर्म का बीड़ा सिर पर उठाया है। इतना कह और धरतो में माथा टेक बुड़िया रवाना हुई। । डाक्टर साहब आश्रम के भीतरी कक्ष में एक शनरी पर बैठे थे । सामने एक नवयुवती सिकुड़ी हुई बैठी थो। डाक्टर साहब सन लगाकर उसे सन्मार्ग पर लाने की चेष्टा कर रहे थे उन्होंने कहा- देखें बंटी, मैं तुम्हारा धर्म का पिता हूँ और रक्षक हूँ। समझती हो न ? "जी हाँ, आपने पत्र में भी यही लिखा था, इसीसे आप पर विश्वास करके चली आई हूँ। आपको धर्म की पुत्री हूँ। आह, मैं बड़े दुष्टों के फन्दे में पड़ गई थी, कहने को समाजी, पर परले दर्जे के लुच्चे, औरतों का व्यापार करने वाले " "अच्छा, तुम कहाँ जा फँलो थी ? खैर, जाने दो इन बातों को। तो देखो, जब मैं तुम्हारा रक्षक और वर्म-पिता हुआ, तब तुम्हें मेरे कहने के अनुसार काम भी करना होगा। तुम जानवी हो, मैं तुम्हारी भलाई की बात ही सोचूंगा!" "मुझे आपका भरोसा है।" "अच्छी बात है, तुम्हें तीन दिन यहाँ आए हुए। कही, कोई कष्ट तो नहीं है ? "जी नहीं।" "खाने-पीने की दिक्कत?" "जी, कुछ नहीं "कपड़े-लत्ते तुम्हारे पास काफी हैं न ?"

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