विधवाश्रम छाधिधात्री देवी के साथ या झाजिर हुए। डॉक्टर ने कहा--- "इम बत्रकूम को समझाकर और दे युचना जबईतो बाहर जाने लगी। गजांत ने कहा-'जार क्यों करती हो, जोर हनने मी है। बात समझा-समझानी जोर से कुछ नहीं बनेगा। "में कुछ नहीं सुनन', मैं अभी जाऊंगा।" जा नहीं सकती "क्या मैं ही हूँ?" "जो कुछ समझो।" "तुम सब लोग एक ही से पिशाच हो, धर्म की दट्टी में शिकार खलते हो" "जो जी में आवे सो बको "क्या तुम जबर्दली शादी कराना चाहते हो ?? "और पाश्रम हमने किस लिए खोला है ?:: "मैंन समझा था कि विधवाओं को शिक्षा मिलती है। रोटी-कपड़ा मिलता है, वे बावलम्बिनी बनाई जाती हैं।" " तुम्हें यह नहीं मालम कि उनकी शादियाँ भी होती हैं" "मैं समझती थी, जो शादी कराना चाहे उसकी शादी होती हो।" " यही गलती है। इस तरह या पंछियों का बसेरा बसाया जाय तो आश्रम का दिवाला दो दिन में निकल जाय। यहाँ तो नया माल पाया- इधर से उधर चालान किया, आश्रम का भी खर्च निकला और तुम लोगों का भी भला हुआ !"
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