पृष्ठ:पीर नाबालिग़.djvu/१२६

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चतुरसेन की कहानियाँ मैजिस्ट्रेट ने बारी-बारी से तीनों स्त्रियों के बयान लिए । "एक ने कहा मेरा नाम रामकली है । मैं हैदराबाद दक्खिन से आई हूँ। पर मेरा असली वतन कानपुर है । जात की ब्राह्मण हूँ। मेरा पति हैदराबाद में नौकर था, वह वहीं पर गया। तब एक पड़ोस के भले घर में मैं मिहनत-मजूरी करके गुजर करने लगी । उस घर के मालिक की मेरे ऊपर बुरी नजर पड़ी, उन्होंने मुझे तन करना शुरू कर दिया। अन्त में उन्होंने मेरा धर्म भ्रष्ट कर दिया। उन्होंने बड़े-बड़े सब्जबाग दिग्बलाए थे। पर थोड़े ही दिनों में उनका बाच बदल गया। उन्होंने मुझे पढ़ने को सलाह दी, मुझे वह पसन्द आ गई। उन्होंने कहा कि हम तुझे दिल्ली आश्रम में भेज देते हैं, वहाँ बहुत अच्छा बन्दोबस्त है। मैंने स्वीकार किया । वे मुझे मन्त्री आर्य समाज के पास ले गए। उन्होंने मुझे लिखा-पढ़ी करके यहाँ पहुँचा दिया । यहाँ इन लोगों के रज ढङ्ग दे च कर मैं घबरा गई। मन्त्री जी ने कहा था कि वहाँ आर्य-देवियाँ रहती हैं-विद्या पढ़ाई जाती है, और सन्ध्या, हवन नित्य-कर्म होते हैं। पर यहाँ देखा तो कुट्टन- खाना है, गुण्डों का राज्य है। वे भत्ते घर को बहिन-बेटियों को फुसला कर लाते हैं और दस-पाँच दिन खिला-पिला कर बेच देते हैं। मेरा भी सौदा होने लगा। २-३ आदमी भी बुलाए गए । रुपए भी वसूल कर लिए, पर मैं मदों की दुश्ता को जान चुकी हूँ। मैं इन पर विश्वास नहीं करती, न उनकी दासी बनना चाहती हूँ। फिर मेरी किस्मत में जो होना था, हो गया। मैं विद्या पढ़ कर कहीं अध्यापिका की नौकरी करना चाहती थी, जिससे गुजर हो जातो । परन्तु ११०