पृष्ठ:पीर नाबालिग़.djvu/१३२

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चतुरसेन की कहानियाँ डॉक्टर ने बयान दिया:- "हुजूर, मैं पुराना आर्य-समाजी हूँ। सब लोग मुझे जानते हैं। मैं कभी भूठ नहीं बोलसा ! नित्य सन्ध्या-हवन करता हूँ। ये लड़कियाँ और गवाह झूठे हैं। विधवाश्रम बड़ी पवित्र संस्था है। त्रियों का उद्धार करना उसका उद्देश्य है। ये देखिए, छपे हुए सार्टिफिकेट हैं, जो बड़े-बड़े लोगों ने दिए हैं। मैं सबको धर्मपुत्री समझता हूँ । विवाह उनकी राजी परही होते हैं। गहन-कपड़े मैं सब देने को तैयार है। मेरा उद्देश्य अधर्म का नहीं, धर्म का है : धर्स की जय होती है ! यही ऋषि दयानन्द का मिशन है । गजपति ने कहा- मैं इस मामले में कुछ नहीं जानता, सिर्फ लकी करता हूँ !” अन्य अभियुक्तों ने भी इन्कार कर दिया। मैजिस्ट्रेट ने फैसला लिखाः- "इस मुकदमे के सम्बन्ध में मेरी मुख्तसिर राय है कि ऐसे ही पाखण्डियों से सच्चे धर्म का अनिष्ट होता है। धर्म चाहे सनातन हो, चाहे आर्य समाजी, या कोई भी समाजी-यदि उसमें सरलता, सत्यता और श्रद्धा तथा विश्वास है, तो वह प्रशंसनीय है ! मैं यह जानता हूँ कि प्रत्येक मत में कुछ सच्ची लगन के सत्यवती और धर्मिष्ट आदमी हैं, जो वास्तव में प्रशंसा के योग्य हैं ! इसके सिवा सभी सम्प्रदायों में कुछ पाखण्डी लोय भी होते हैं, जो भीतर कुछ और बाहर कुछ और होते हैं ! पर अभियुक्तों जैसे पेशेवर अपराधियों की श्रेणी तो पृथक ही है। ये न केवल पेशेवर अपराधी ही हैं, प्रत्युत् उसे किसी समाजका