पृष्ठ:पीर नाबालिग़.djvu/१३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

विधवाश्रम धार्मिक संस्था की आड़ में छिपा कर, उस संस्था का गौरव भी नष्ट करते हैं! निस्सन्देह समाज के लिए ऐसे आदमी "यह बात तो सच है कि हिन्दू-समाज में स्त्रियों की दुर्दशा का अन्त नहीं है और वे चारों तरफ से प्रताड़ित होकर असहाय हो जाती हैं ! उनकी सहायता के लिए ऐसे श्राश्रमों की स्थापना एक उच्च कोटि के अस्पताल से कम पवित्र संस्था नहीं ! मैं यह भी स्वीकार करता हूँ कि ऐसी संस्थाओं का सम्पर्क बहुधा भया- नक पतिता खियों से पड़ना बहुत-कुछ कामाविक है और उनके साथ थोड़ा अनैतिक व्यवहार होना भी असम्भव नहीं ! विध- वाओं के विवाह की उपयोगिता का कौन बुद्धिमान समर्थन नहीं करेगा ! परन्तु अच्छी-बुरो सभी स्त्रियों को अवैध उपार्यों से फुसला कर इकट्ठा करना, उनके आचरण सुधारने तथा उन्हें शिक्षिता करने का कोई उद्योग न करके, रुपया लेकर लोगों को बेच देना; यही नहीं, उन्हें फुसला कर वापस बुलाना और दुबारा- तिवारा बेचना भयानक अपराध और जघन्य पाप है ! खास कर जब वह ऐसे आदमियों के द्वारा किया जाय, जिन पर जनता विश्वास करती और सत्पुरुष समझती है ! यह सम्भव है कि संस्था को गुण्डों और दुष्ट स्त्रियों से साबका पड़वा रहे, पर यह उचित नहीं कि वह गुण्डों के हाथ में आश्रम को सौंप दे, गुण्झे को अधिकारी बनाए ! अभियुक्तों पर जो आरोप प्रमाणित हुए हैं, वे सङ्गीन हैं और ऐसे आदमी समाज के लिए बहुत भयानक हैं ! मैं इन्हें उनकी दुष्टता के लिए डॉक्टर सुखदयाल को दो वर्ष और अन्य लोगों को नौ चौ मास का सपरिचय कारावास की सजा देता हूँ।