पृष्ठ:पीर नाबालिग़.djvu/३२

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बड़े साहब चतुरसेन की कहानियाँ कसाने की कमाई से हमीद मियाँ पढ़ लिख कर पास हुए, और न खुश होकर उन पर रहमत बख्शी। अपनी ही मात- हनी में चालीस की नौकरी फट से दे दी। तब मैंने हौसला करके उनकी शादी भी लखनऊ के एक मातबर घराने में कर दी। अमाह का जल हुजूर, बीवी उसे वह मिली कि क्या कहूं! उम्मीद की-अव आगम ने रोटियाँ खाने को मिलेंगी। हमीद और उसकी बीवी इन यतीम बच्चों को पाल लेंगे, मुझे छुधी मिलेगी-मगर नहीं, खुदा को कहाँ मंजर था कि इस गुलाम को आराम मिले! सो हमीद मियाँ बीवी को लेकर दूसरे ही महीने अलग हो गए। एक महीने की भी तनख्वाह मेरी हथेली पर न रखी । खून का बूंद यो कर रह गया हुजूर, मगर मैंने हिम्मत न हारी, बों को छाती से लगा कर अल्लाहताला का शुक्रिया अदा किया और रशीद मियाँ को जी जान से पढ़ाना शुरू किया। "उन दिनों रशीद आटवी में था। पास कर नवमीं में आया तो रिश्ते आने लगे । एक हो जहीन था हुजूर, और शक्ल सूरत से तो वह नवाबजादा लगता था। मगर अफसोस ! दो दिन मे मौत ने अपना हाथ साफ कर लिया। दिल के अरमान दिल हो में रह गए । खुदा से जन्नत दे । रशीद दिल पर दाग दे गया है बहुत आँसू बहाए हुजूर, आखे भी जाती रहीं । पर रशीद मियाँ नो गए. सो गए । लाचार सन किया । हिम्मत बाँधी, और अपनी तमाम उम्मीदें बशीर पर बाँधी!" 'अाप की दुभा से गरीब हूँ, महज़ दफ्तरी मगर किम्मत का धनी हूँ। औलाद जो मैंने पाई वह किसी नवाब को नसीब होना भी मुमकिन नहीं। बशीर बहुत जहीन था, हर साल डबल