पृष्ठ:पीर नाबालिग़.djvu/५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मविता अन्न करके भूग्बों मर गए ! कलकत्ते की गली-कूचों में लागं सड़ने लगी, पतियों ने पनियाँ और माताओं ने पुत्र बेच खास, लोह और लोहे की ज्वाला लाल लाल जीभ लपलपानी सुदूरपूर्व से भारत की प्रस लेने के लिए प्रसर होने लगी। देश के संरक्षक जेलों में भर दिए गष्ट, और सेना राज्य का नग्न नृत्य निरीह ग्रामवामियों और भद्रजनी ने सहा । मान-सनम: प्राण-धन सब कुछ अरक्षित हो गया। देशों पर विपत्ति, पर विपत्ति, मानन कुल पर विपत्ति। फिर भी कुछ लोग थे जिनके लिए यह सुअवसर था। वे अपनी थलियों भर रहे थे ! उनकी आमदनी का अन्त न था। उनमें कुछ ना भारतीय मुद्रा प्रसार के ध्रुव केन्द्र थे। वे करोड़ों अरबों रुपये समेट कर अपनी छाती के नीचे रख, भूख और लोहा खाकर मरने वालों की ओर हँसकर देख रहे थे । धन उनका माँ, बाप, चाचा, तार, और परमेश्वर था। सेठ छदामीलाल दामड़िया भी उनमें एक थे, मारवाड़ के लाल । दस वर्ष पूर्व लोटा डोर कन्धे पर रख चने बेचने रंगून गए थे। तिकड़म और जमा-मारी से अब वे करोड़ों के स्वामी बन गए थे। अब उनके तीन-तीन जहाज रंगून से कलकत्ता, सुमात्रा, जावा आदि सुदूरपूर्व में चलते थे । करोड़ों का व्यापार फैला था । पर जब हमारी प्रबल प्रतापिनी ब्रिटिश सरकार-जो इन जमामार सेठ-साहूकारों और दुराचारी रईसों की निर्मात्र थी, दुम दबाकर रंगून से पलायमान हो-शतरंज की चाल खेलती हुई शिमला में आ गई, तो इन माई के लालो का कोई धनी घोरी न रहा। जिस दिन रंगून में भगदड़ मची, छदामी सेठ अपना सब कुछ छोड़कर नोटों के गट्ठर गुदड़ी में छिपाए, कहीं पति