पृष्ठ:पीर नाबालिग़.djvu/९९

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विधवाश्रम में जो प्रधान पुरुष थे-के वही हमारे डॉक्टर जी थे। वे. अपने स्वभाव-सिद्ध ढङ्ग पर गर्दन टेहो किए पन्सिल से लिखते हुए कुछ भुनभुनात जान थे। इनकी बाई ओर जो व्यक्ति थे, उनका मुंह पिचका हुश्रा, अखें गढ़े में घुमी हुई, लम्बी गर्दन और बड़ी सी नाक , सिर मैली बदर के टोपी थी। ये बड़े ध्यान से डॉक्टर जी की काल में इतचिन हो रहे थे। असल में ये आश्रम के सेक्रेटरी थे। रवि पच्चीस रुपए ऑनररियम पाते थे। उनके सवार तीसरे व्यक्ति एक नवयुवक थे ! इतका घिनौनो मूछ बड़े भद्दे द से मुम्ब पर फैल रही थीं। ऑबी में शत आर चेष्टा में बदमाशी साफ झलक रही था। य डाक्टर जी के हुक्म के मुनिक सामने रकार हुए, खुले कागजी का फाइल में कुछ काट-छट कर रहे थे। इन्हें आश्रम से तीस समानहाना वेतन भी मिलता था। बेचारों के ऊपर रातदिन का, अाश्रम और उसको रहने वाली त्रियों की रक्षा का असह्य भार था ! विवश उन्हें गत को भी नौकरी मे कुलन नहीं मिलनी थी, हालांकि आप बहुत कुछ शिकायत किया करते थे। पर इस गैर-फुर्सनो में आप कितने खुश थे. सो भगवान जानता है। ये एक तौर से इस मण्डली मे गुड़ के चिउँटे हो रहे थे। इनका नाम था गजपति । इनकी बगल में लाला जगन्नाथ बैठे थे। इनका स्याहाम चेचक से गुदा मुँह, भद्दी सी आँखें, नाटा कद और बात-बात में सनक सो उठना-इनके व्यक्तित्व को सबसे पृथक् कर रहा था। आपकी उम्र पचास के लगभग थी। आप मुख पर गम्भीरता और भक्ति भाव लाने के लिए जो चेष्टा प्रायः किया करते थे,