चतुरसेन की कहानियाँ से एक स्त्री ने आकर कहा-पिता जी लुगाइयाँ तो दोनों बहुत बढ़िया है। "अच्छा "दालों की उटती हुई उन है, रङ्ग भी. उम्र है, रङ्ग भी खूब निखरा हुआ है, पर दोनों रो बुरी तरह रही हैं।" "च्छा, उन्हें कुछ खिला-पिला कर बातचीत से खुश करो, और अलग-अलग कोठरियों में सुला दो।"-इतना कह कर पिता जो, उक डॉक्टर जी, उर्फ अधिष्ठाता जी ने बूढ़े बकरे की नरट् दोन निकाल दिए और अपनी मनहूस आँखों को क्षण भर के तार सातने विवरे हुए काराज़ों पर से उठा कर बात करने वली घरमपुत्री ( ? ) की ओर धर दिया । घरमपुत्री उसो तरह एक कटाक्ष फेक और दाँतों की बहार दिखाती हुई चल दी। इस धरमपुत्री की उम्र लगभग ३० वर्ष, रङ्ग कोयले के समान, जिम्म लम्बा, बदन छरहा और चेहरा पानीदार था। दाँत चमकीले, आंखें तेज़ और चञ्चल तथा बाणी साफ और लच्छेदार थी। यही आश्रम की संरक्षिका, इस छोटे से स्त्री- जेलवाने को सुपरिन्टेण्डेन्ट, और इन पाप-महल की सर्वतन्त्र स्वतन्त्र महारानी थी। नाम था प्रमदेवो । उसी दिन, दिन के तीन बजे विधवाश्रम के बाहरी बैठकखाने में, चारों मूर्तियाँ एक टेबिल पर विराजमान थीं। चारों पुरुषों १२