है । ऐसे लोगों के प्राणों का परित्राण अग्निदेव ही कर
सकते हैं । इसी से आदिम आर्य अग्नि की खूब उपासना करते थे । तरह तरह के त्योहार मना कर, समय
समय पर, यज्ञ-याग आदि के अनुष्ठान से उसे वे सदा
ही तृप्त किया करते थे। यहाँ पर एक बात लिखना
सुनीति बाबू शायद भूल गये है। वह यह कि शरीर में
गरमी पैदा करने-रुधिर में कुछ उष्णता लाने के लिए
नशा पानी भी तो किया जाता है । अतएव सोमरस या
सोमसुरा पीकर वे लोग जो खुशियाँ मनाया करते थे वह
भी बहुत करके शीताधिक्य के कष्ट को कम करने के
लिए । क्यों न-?
अच्छा तो अपनी पुरानी आदतें और पुराने रीतिरवाज लेकर आर्य लोग जब भारत में दाखिल हुए तब उन्होंने यहाँ और ही लोगों को आबाद पाया । उनमें से कुछ लोग, अर्थात् द्राविड़, अनेक विषयों में उनसे भी अधिक सभ्य थे । उनको सभ्यता और ही तरह की थी। उनकी पूजापाती और अचा-उपासना में भो भिन्नता थी । उसका असर आर्यों पर पड़ने लगा भौर कालान्तर में उन्होंने द्राविड़ों के ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा बाह्मी, वैष्णवी, माहेश्वरी आदि की भी पूजा भारम्भ कर दी। यदि ऐसा नहीं, तो पाठक ही बतावें आर्यों ने पूजन आदि की यह नई प्रणालो कहाँ, कैसे और किससे सीखी।