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पृष्ठ:पुरातत्त्व प्रसंग.djvu/१२९

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द्रविड़जातीय भारतवासियों की स० को प्रा०
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उनके ऋग्वेद में तो इसका कहीं भी पता नहीं। उसमें तो वही सूर्य और चन्द्रमा, अग्नि और वरुण, द्यावापृथिवी और इन्द्र आदि ही के पूजन, प्रशंसन और स्तवन आदि का प्रकार वर्णित है । महाभारत और रामायण आदि के समय जैसी पूजा-अर्चा होने लगी थी वैसी का तो ज़िक्र भी ऋग्वेद में नहीं। हाँ, द्राविड़ लोग इन देवताओ की उपासना बहुत पहले भी करते थे और अब भी करते हैं । अतएव इन्हीं ने आर्य्यो को ये बातें सिखाई होंगी। आर्य तो होम, हवन, भग्निहोत्र, याग, यज्ञ और सत्र को छोड़ कर और कुछ जानते ही न थे । विश्वास न हो तो बताइए "पूज" धातु आर्यों के धातु-पाठ में कहाँ से आई। उसकी तत्सम या तद्भव कोई धातु ग्रीक, लैटिन और ट्यू टन भाषाओं में भी नहीं। आर्यों के पूजा-शब्द का उद्भव हुभा है, द्राविड़ भाषा के “पू" शब्द से । उसका अर्थ है, फूल । संस्कृत के पुष्कर और पुष्प आदि शब्दो का पूर्व पुरुष या जनक यही "पू" शब्द है। इसमें यदि भापको फिर भी कुछ शंका हो तो कालिन्स साहब की वह पुस्तक देख लीजिए जो उन्होंने द्राविड़-भापाभी के विषय में लिखी है। इन बातों से यह भच्छी तरह सूचित होता है कि आर्य्यों की सभ्यता के विकास में आर्येतर लोगों ने भी कुछ न कुछ सहायता अवश्य ही की है।