भारत जिस गति या दुर्गति को इस समय, नहीं, बहुत पहले ही से, प्राप्त हो रहा है, उसका कारण दैव दुर्विपाक नहीं। कारण तो स्वयमेव भारत ही की अकर्म्मण्यता है। जिस भारत ने समुद्र पार दूरवर्ती देशों और टापुओं तक में अपने उपनिवेश स्थापित किये, जिसने दुर्ल्लन्घ्य पर्वतों और पार्वत्य उपत्यकाओं का लंघन करके अन्य देशों पर अपनी विजय-वैजयन्ती फहराई और जिसने कितने ही असभ्य और अर्द्ध-सभ्य देशों को शिक्षा और सभ्यता सिखाई, वही भारत आज औरों का मुखापेक्षी हो रहा है। जिस भारत के जहाज महासागरों को पार करके अपने वाणिज्य की वस्तुओं से दूसरे देशों को पाटते रहते थे वही भारत आज सुई और दियासलाई तक के लिए विदेशों का मुहताज हो रहा है। यह सब उसी के कृत कर्मों का परिपाक है। बेचारे दैव का इसमें क्या दोष? महाकवि भारवि ने लिखा है--
द्विपन्निमित्ता यदियं दशा ततः समूलमुन्मूलयतीव मे मनः।
परैरपर्य्यासितवीर्य्यसम्पदां पराभवोऽप्युंत्सव एव मानिनाम्॥