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पुरातत्व-प्रसङ्ग


हो का आधिक्य पाया था।

सुमात्रा और जावा में उपनिवेश स्थापित करके वहीं बस जानेवाले हिन्दुओं का अधिक सम्पर्क, पहले पहल, दक्षिणी भारत से था। वे लोग दक्षिण ही से, जाकर वहाँ बस गये थे। पर निकट होने के कारण, कालान्तर में, उनका आवागमन बङ्गाल और मगध से अधिक होने लगा। फल यह हुआ कि शिलालेखों और ताम्रपत्रों में दक्षिण की पल्लव ग्रन्थ-लिपि के बदले उत्तरी-भारत को लिपि स्थान पाने लगी। शैलेन्द्रवंशी एक राजा ने ७०० शक (७७८ ईसवी) मे तारा का एक मन्दिर, जावा में, बनवाया। उससे सम्बन्ध रखनेवाले लेख में उत्तरी-भारत की लिपि का प्रयोग हुआ है। यह लिपि देवनागरी से कम, बंगला से अधिक, मिलती-जुलती है।

श्रीविजय के नरेशों के शासन-काल में जावा अर्थात् यवद्वीप की बड़ी उन्नति हुई। कला-कौशल और मन्दिर- निर्म्माण आदि के कुछ ऐसे काम उस समय हुए जिन्हें देखकर बड़े बड़े यंजिनियर और कला-कोविद शतमुख से उनकी प्रशंसा करते है। बोरोवोदूर के विश्वविश्रुत मन्दिर-समूह उसी समय बने। चण्डी-मेन्दूत को अवलो- कितेश्वर की प्रसिद्ध मूर्ति का निर्म्माण भी तभी हुई। यह मूर्ति गुप्तकालीन मूर्ति- निर्म्माण-प्रणाली से टक्कर