पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१२ पुरानी हिंदी है, एक मोरठा, किंतु रचना 'दोहाविद्या' कही गई है यह वात ध्यान देने योग्य है । इसी प्रकार रेखता छद मे रेखते की बोली कहला गई थी (रेखते के उस्ताद तुमही नही हो गालिब )। पुरानी हिंदी का गद्य बहुत कम लिखा हुआ मिलता है। पद्य दो तरह रक्षित हुना है, मुख से और लेख से। दोनो तरह की रक्षा में लेखक के हस्तसुख और वक्ता के मुखसुख से इतने परिवर्तन हो गए हैं कि मूल शैली की विरूपता हो गई है। लिखनेवाला प्रचलित भापा के प्रथो या लोकप्रिय कान्यो में 'मक्खी के लिये मक्खी' नही लिखता । उसके विना जाने ही कलम नए रूपो पर चल जाती है । गुमाई जी के 'तइसइ', 'जुगुति', 'कालसुभाउ' 'अउरउ' अब क्रम से 'तैसेहि', 'युक्ति', 'कालस्वभाव' और "औरों हो गए है। जो कविता मुख से कान, मुख से कान, चलती है उसपे तो बहुत ही परिवर्तन हो जाने हैं। हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण (आठवे अध्याय) के उदाहरणो मे एक 'अपभ्रश' या पुरानी हिंदी के दोहे को लीजिए। अपभ्रश और पुरानी हिंदी मे सीमारेखा बहुत ही अस्पष्ट है और जैसा कि आगे स्वष्ट हो जायगा, पुरानी हिंदी का समय बहुत ऊपर चढ़ जाता है । वह दोहा यह है-- वायसु उड्डावन्तिमए पिउ दिठ्ठठ सहसत्ति । अद्धा वलया महिहि गय प्रद्धा फुट्ट तडत्ति ।। [वियोगिनी कोमा उडाने लगी कि मेरा पिया प्राता हो तो उड जा। इतने मे उपने अचानक पिया को देख लिया । कहाँ तो वह वियोग में ऐसी दुवली थी कि हाथ बढाने ही प्राधो चूड़ियाँ जमीन पर गिर पड़ी और कहाँ हर्प से इतनी मोटी हो गई कि वाकी चूडियां तड तड कर चटक गई ।] चारणो के मुख से कई पीढियो तक निकलते निकलते राजपूताने में इस दोहे का अव मजा हुमा रूप प्रचलित है---- काग उडावरण जांवती पिय दीठो सहसत्ति । श्राधी चूडी कागगल तडित्ति ॥ निशाना ठीक लग गया, चूडियां जमीन पर न गिर कर कोए के गले में पहुंच गई और चूडी टूटने का अशकुन भी मिट गया । उसी व्याकरण में से एक दोहा और लीजिए-~- 1 आधी टूट