पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१७४

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पुरानी हिंदी १७३ रक्खै वह विप (पानी) हारिणी, दो, कर, चूमकर, जीव ( अपना ), प्रतिबिंबित-गूंज-वाला-जल, जिनसे, पिलाया, पिया को। कही ताल के तौर पर मिलन हुआ था। किनारे पर मूंज उग रही थी । उसको पानी में परछाई पड रही थी। पिया ने उसके हाथो से जल पिया था, फिर मिलना नही हुआ । नायिका उन हाथो को चूम चूमकर ही जीवित रह रही है । विस-जल सस्कृत में भी अप्रयुक्त है, यदि विस ( कमल की नाल ) लानेवाली अर्थ करें तो अच्छा हो क्योकि कमलनाल का मूल वहाँ रहता है जहाँ जल मे मुज का प्रतिबिंब पड़ा था उमलिये कमलनाल तोडते समय सव स्मरण आता रहता है। वे-दोवकवृत्ति कदाचित 'जेहिं के नित्य-सबध से इसे वर्तमान हिंदी का 'वे' मानतो जान पड़ती है, चुम्विवि= पूर्वकालिक मुजालु-'माला' प्रत्यय 'वाला' अर्थ मे अडोहिउ- पिया, पिलाया। (१६२ ) वाह विछोडवि जाहि तुहं हउँ तेवइ को दोसु । हिअअट्ठिउ जइ नीसरहि जाणउँ मुज सरोसु ।। देखो प्रवचिंतामणि वाला लेख (पत्रिका भाग २, पृ०४४) । दोधकवृत्ति 'मुजो भूपति सरोप' कहकर यही अर्थ करती है कि नायिका नायक मुज मे कह रही है। ( १६३ ) जेप्पि असेसु कसायक्ल देप्पिणु अभउ जयस्तु । लेवि महव्वय सिवु लहहिं झाएविण तत्तस्सु ॥ जीतकर, अशेप, कपायबल, देकर, अभय, जगत का (को) लेवर, महावत शिव, पाते है, ध्यान कर, तत्व का (को) । जेप्पि, देप्पिरग लेन्धि, झाएविणु--पूर्वकालिक, क्साय-- पाय, मल, क्रोधादि, सिव--मोक्षपद । (१६४) देव दुक्करु निग्रय धणु करण न तउ पडिहाइ । एम्वइ सुहु भुजणहँ मणु पर भुजणहि न जाइ। देना, दुष्कर, निजक-धन, करना, नही, तपः (प्रति ) भाता, यो, नुन, भोगने का, मन ( है ), पर, भोगने को, (= भोगा) न जाता। देव-(पाठा०